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संस्कृत साहित्य का इतिहास
स्मरण रखना चाहिए कि काव्यशास्त्र जैसे विषय में कुछ पारिभाषिक शब्दावलो और भाव होते हैं, जिनको बार-बार आवृत्ति होती है और उनके आधार पर यह निर्णय नहीं किया जा सकता है कि अमुक लेखक ने यह शब्द प्रमु से लिया है, अतः वह उससे बाद का है । अतः यह मानना अधिक उचित है कि भामह दण्डी के बाद का समकालीन लेखक है । उसका समय ७०० ई० के बाद और ७५० ई० से पूर्व मानना चाहिए ।
भामहालङ्कार अव्यवस्थित शैली में लिखा गया है । इसमें ६ परिच्छेद हैं । वर्णन की दृष्टि से यह काव्यादर्श के तुल्य है । भामह ने गद्य का कथा और आख्यायिका के रूप में विभाजन स्वीकार किया है और वैदर्भी की अपेक्षा गौड़ो रीति को विशेष महत्त्व दिया है। उसने भरत और दण्डी के द्वारा स्वीकृत दस गुणों के स्थान पर केवल तीन गुण स्वीकार किए हैं। उसने काव्य के दोषों का भी विवेचन किया है । काव्यादर्श को उसकी मुख्य देन वक्रोक्ति को महत्त्व देना है । सभी अलङ्कारों के मूल में अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है । उसमें रसों को जो महत्त्व दिया जाता है, उसकी उपेक्षा की है । उसने अलङ्कारों पर जो बल दिया है, उसके कारण ही वह बाद के साहित्य शास्त्रियों के द्वारा विशेष प्रावृत हुआ । उन्होंने इसके ग्रन्थों से उद्धरण भी दिए हैं । वह वररुचि के प्राकृतप्रकाश पर एक टीका का लेखक भी माना जाता है ।
उद्भट कश्मीर के राजा जयापीड ( ७७९-८१६ ई० ) का आश्रित कवि था । उसने भामहालङ्कारविवरण नामक अपने ग्रन्थ में भामह के अलङ्कार पर टीका की है । यह ग्रन्थ नष्ट हो गया है । उसका दूसरा ग्रन्थ जो प्राप्य है, उसका नाम श्रलङ्कारसारसंग्रह है । इस ग्रन्थ का दूसरा नाम उद्भटालकार भी है। इस ग्रन्थ के नाम से ज्ञात होता है कि यह भामहालङ्कारविवरण का ही सक्षिप्त रूप हैं । इसमें ६ अध्यायों में मुख तथा अलङ्कारों का ही वर्णन है । इनका वर्णन भामह के वणन से बहुत अधिक मिलता है । उसके अनुसार रोतियाँ तीन हैं ( १ ) उपनागरिका अर्थात् परिष्कृत, (२) ग्राम्या अर्थात् साधारण,