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संस्कृत साहित्य का इतिहास आदि के द्वारा व्यक्त होने वाली ध्वनि रस के आश्रित ही है । गुण और अलङ्गार रस से ही सम्बद्ध हैं इस मत के समर्थकों ने समस्त साहित्यिक रचचारों को तीन भागों में विभक्त किया है । इसका प्राधार उन्होंने ध्वनित अर्थ रक्खा है। वे तीन विभाग ये हैं--(१) ध्वनिकाव्य जिसमें व्यंग्य को मुख्यता प्रदान की गई है। (२) गुणीभूतव्यंग्यकाव्य, जिसमें व्यंग्य अर्य को गौण स्थान प्रदान किया गया है । (३) चित्रकाव्य जिसमें व्यंग्य अर्थ का सर्वथा अभाव है और केवल शाब्दिक चातुर्य दिखाया जाता है । जब रस को व्यंग अर्थ के रूप में रखना हो तो गद्य में भी लम्बे समासों का रखना निषिद्ध है। ___ अन्य मतों में से गुणवाद का विशेष सम्बन्ध रीतिवाद से है । गुणवाद के विशेष समर्थक दण्डी हैं । अनुमानवाद का विशेष सम्बन्ध रसवाद से है। शंकुक और महिमभट्ट इस मत के विशेष प्राचार्य हैं । औचित्यवाद के मुख्य समर्थक क्षेमेन्द्र हैं । इसमें काव्य के उत्कर्ष के लिए औचित्य को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया है । क्षेमेन्द्र ने यह मत पूर्व प्राचार्यों के मतों के आधार पर रक्खा है। __ इस विषय पर सबसे प्राचीन जो ग्रन्थ प्राप्त होता है, वह है भरत का नाट्यशास्त्र । वह ईसवीय सन् से बहुत पूर्व हुआ था । कालिदास ने विकमोवंशीय में उसका उल्लेख किया है, अतः उसका समय ४०० ई० पू० या उससे भी पूर्व मानना चाहिए । नाट्यशास्त्र जो आजकल प्राप्त होता है, वह ३७ अध्यायों में है । इसमें विभिन्न समयों में अनेक प्रक्षेप हुए हैं। नाट्यशास्त्र का समय ४०० ई० पू० के लगभग मानना चाहिए । परन्तु यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि भरत का लिखा हुआ मूल ग्रन्थ कितना है। यह माना जाता है कि भरत से पूर्व काव्यशास्त्र के मुख्य प्राचार्य नन्दिकेश्वर और नारद आदि हो चके हैं। नाट्यशास्त्र में रङ्गमंच का प्रबन्ध आदि विषयों को लेते हुए नाट्यशास्त्रीय सभी विषयों का वर्णन है । साथ ही नृत्य और संगीत का भी विवेचन है । जहाँ तक नाटक तथा काव्यों के सिद्धान्त