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________________ काव्य और नाट्य शास्त्र के सिद्धान्त २८१ रूप में माना गया है । भरत के नाट्यशास्त्र के एक श्लोक में इन सबका नाम आता है। वह श्लोक यह है - शृङ्गारहास्यकरुणरौद्र वीर भयानकाः । वोभत्साद्भुताशान्तश्च रसाः पूर्वरुदाहृताः ।। नाट्यशास्त्र का पाठ अस्पष्ट होने का कारण यह स्पष्ट नहीं है कि भरत शान्त को पृथक् रस मानते थे कि नहीं। भरत शान्त को मुख्य भाव अवश्य मानते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन काल से वैराग्य का जो भाव प्रचलित था, वही महाभारत के प्रभाव के कारण रस के रूप में माना गया ! कुछ आलोचकों का यह कथन कि यह कुछ परमित व्यक्तियों को ही प्रभावित करता है, अतः प्रधान रस नहीं मानना चाहिए यह कथन उचित नहीं है. क्योंकि रस की प्रधानता और अप्रधानता के निर्णय व्यक्तियों की संख्या पर नहीं है । अतएव शान्त को पृथक् रस मानने का निषेध नहीं किया जा सकता है। हर्ष के नागानन्द में शान्त रस ही प्रधान रस है। हर्ष को नाट्यशास्त्र का टीकाकार भी माना जाता है । यह नाटक सम्भवतः इसलिए लिखा गया है कि इस बात का परीक्षण किया जाय कि शान्त पृथक् रस है या नहीं। उद्भट ही सबसे पहला लेखक है, जिसने शान्त को पृथक् रस स्वीकार किया है। ___ रस की अनुभूति के विषय में कतिपय लेखकों ने अपने विभिन्न मत दिए हैं। लोल्लट का मत है कि रस अभिनेता में रहता है । दर्शक जब यह देखता है कि वास्तविक अभिनेय पात्र का अभिनय करने वाला अभिनेता उसी प्रकार का रसानुभव प्रदर्शित करता है तो वह भी प्रसन्न हो जाता है । शंकुक का मत है कि अभिनेता के सुन्दर अभिनय को देखकर दर्शक अनुमान के द्वारा यह समझने लगता है कि यह अभिनेता ही वस्तुतः अभिनेय व्यक्ति है । दर्शक अनुमान के द्वारा रस का अनुभव करता है। भट्टनारायण के अनुसार रस को न देखा जा सकता है और न रस उत्पन्न किया जा सकता है, किन्तु शब्दार्थ के द्वारा उसका अनुभव किया जा
SR No.032058
Book TitleSanskrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorV Vardacharya
PublisherRamnarayanlal Beniprasad
Publication Year1962
Total Pages488
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
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