________________
२८०
संस्कृत साहित्य का इतिहास
sar और लालित्य को महत्त्व दिया जाता है । यह रीति सर्वोत्तम है । यह रीति विदर्भ से प्रारम्भ हुई, अतः इसको वैदर्भी कहते हैं । गौड़ी रीति का जन्म बंगाल में हुप्रा है । इसमें प्रजगुण वाले शब्द, अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन और रचना में आडम्बर अधिक होता है । वैदर्भी में भाव पर अधिक बल दिया जाता है और गौड़ो में शब्दों पर । ६०० ई० से पूर्व ये दोनों शैलियाँ ही प्रचलित थीं । दण्डी ( ७०० ई०) ने उल्लेख किया है कि निम्नलिखित दस गुण वैदर्भी रीति की आत्मा हैं - श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, उदारत्व, प्रोज, कान्ति, समाधि और अर्थव्यक्ति । दण्डी ( ७०० ई० ) और वामन ( ८०० ई०) रीतिवाद के प्रमुख आचार्य हैं । वामन का मत है कि रीतिकाव्य की आत्मा है । ८०० ई० के बाद चार और रीतियाँ प्रचलित हुईं और उनको वैदर्भी तथा गौड़ो के मध्य में स्थान दिया गया । ये चारों रीतियाँ हैं -- पांचाली, लाटी, अवन्ती और मागधी । ये रीतियाँ उन प्रदेशों में आरम्भ हुईं अतः उनको ये नाम दिए गए । ८०० ई० के बाद इस बात का प्रभाव नष्ट हो गया, क्योंकि इन्होंने काव्य के अत्यावश्यक अंग रस की उपेक्षा कर दी थी ।
से
उत्पन्न होता
)
रस सम्प्रदाय के मानने वाले आचार्यों का मत है कि काव्य की आत्मा रस है । 'रस नाटक के दर्शक, काव्य के श्रोता या पाठक के मन की एक अवस्था - विशेष है, जो कि पात्रों के भावों से या स्वतन्त्र भावों है । भाव दो प्रकार के विभावों से उद्दीप्त होता है -- ( १ रस - विशेष को उत्पत्ति के आधार से । जैसे श्रृंगार रस में प्रिय व्यक्ति आलम्बन है या (२) जिसके कारण वह भाव उद्दीप्त होता है । जैसे, शृंगार में वसन्त प्रादि । ' इन दोनों को क्रमशः आलम्बनविभाव और उद्दीपनविभाव कहते हैं । इन भावों का मनुष्य पर प्रभाव मूर्च्छा, थकान, कम्पन आदि के रूप में प्रकट होता है । इन सब कारणों से एक स्थायी भाव उत्पन्न होता है । वही अन्त में रस का स्थान ले लेता है । रस प्राठ हैं--उनके नाम ये हैं श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत । वाद में शान्त को भी नवें रस के