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अध्याय ३
वेद और पाश्चात्य विद्वान्
पाश्चात्त्य विद्वानों ने वेदों के आलोचनात्मक अध्ययन के समय पारसियों की धर्मपुस्तक जेवेस्ता से इनका तुलनात्मक अध्ययन किया और उनको वेद तथा जेन्दअवेस्ता में बहुत-सी समताएँ दृष्टिगोचर हुई । कुछ स्थानों पर दोनों ग्रन्थों में प्राप्त होने वाले शब्दों के अर्थ और रूप में समानता थी । जैसे, वेद में 'मित्र' जेन्दअवेस्ता में 'मिहिर' शब्द सूर्य अर्थ में है । वेद में 'वृत्रहन्’ और जेन्दावेस्ता में ‘वेरेथघ्न' युद्ध के देवता के लिए हैं और ध्वनि विचार की दृष्टि से समान हैं । वेद का 'असुर' शब्द जेन्दावेस्ता के 'अहुर' शब्द से ध्वनि- विचार की दृष्टि से समान हैं । किन्तु दोनों के अर्थ में अन्तर है । असुर शब्द का अर्थ है 'राक्षस' और अहुर का अर्थ है देवता । वेद में 'सोम' और जेन्दावेस्ता में 'होम' दोनों पेय पदार्थ के अर्थ में हैं । दोनों धर्मग्रन्थों में उपनयन संस्कार का वर्णन है । इन समानताओं के आधार पर विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि फारस और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में जो लोग रहते थे, उसका एक भाग पूर्व की ओर चला और वह तीन हजार ई० पू० के लगभग भारत में प्रविष्ट हुआ। ये आर्य लोग थे । सर्वप्रथम वे पंजाब में बसे और वहाँ शान्तिपूर्वक जीवन व्यतीत किया । इस प्रसन्नता के कृतज्ञता स्वरूप उन्होंने प्रकृति की उपासना प्रारम्भ की और उसको देवता की श्रेणी में लाए । इन'अवंसरों पर उन्होंने जो प्रार्थनाएँ बनाईं, उसमें फारस और उनकी समीपवर्ती क्षेत्र के निवास के समय के अनुभवों को स्थान दिया । समय के प्रभाव के कारण उनकी भाषा में ध्वनि सम्बन्धी कुछ परिवर्तन हो गए । इन प्रार्थनाओं के संग्रह को ऋग्वेद नाम दिया गया । पंजाब में निवास के समय ऋग्वेद का कुछ भाग ही बना था, शेष भाग जब वे पूर्व की ओर पहुँचे तब बना । इसमें गंगा
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