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वेद
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इन मूलग्रन्थों का साधारणतया पाठ होता था और गुरु-शिष्य परंपरा द्वारा वियों की पढ़ाया जाता था । इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाता था कि विद्यार्थी मूलग्रन्थों को कंठस्थ करें और उसमें उच्चारण और स्वर-सम्बन्धी एक भी त्रुटि न होने पावे । इस परंपरा के कारण ही वेदों को श्रुति नाम दिया गया है ।
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वेदों में किसी प्रकार की त्रुटि न रहे, इसके लिए कई उपाय किए गए थे ! इन उपायों में से पाँच मुख्य थे । संहिता पाठ, पदपाठ, क्रमबाठ, जटापाठ और वनपाठ । संहितापाठ में वेद का मन्त्र जैसा है, उसका वैसा ही पाठ किया जाता है । पदपाठ में मन्त्र को विभिन्न पदों में विभक्त करके उसका पाठ किया जाता है । यदि संहितापाठ को प्रतीक रूप से कखग कहें तो इसका पदपाठ होगा क, ख, ग । जो पद पृथक् किए गए हैं, उनमें प्रारम्भ और अन्त में स्वर-सम्बन्धी परिवर्तनों के लिए विभिन्न नियम बनाए गए और उनका पालन किया गया । इन नियमों की सहायता से पदपाठ से संहितापाठ पूर्णतया शुद्ध रूप में बनता था, जैसा कि मन्त्र को पदपाठ में विभक्त करने से पहले था । क्रमपाठ में पदपाठ के शब्दों को एक-एक बार लिया जाता था और प्रत्येक बार पहले पद के शब्द को भी लिया जाता था और अगले पद के शब्द को भी । जैसे क्रमपाठ का रूप ऐसा होगा :- कख, खग, गघ । जटापाठ क्रमपाठ के तीनों मेल को मिलाने से होता है । जैसे जटापाठ का ऐसा रूप होगा : - कख, खक, कख, खग, गख, खग, । घनपाट उपर्युक्त मेलों के मिलाने से पाँच रूप में बनता है । जैसे घनपाठ का रूप इस प्रकार होगा कख, खक, कखग, गखक और कखग । इन उपायों के द्वारा संहिता पाठ चार प्रकार के विभागों में बांटा गया था और चार पाठों के द्वारा पुनः संहिता पाठ बनाया जा सकता था । इस प्रकार से वेदों को इतने वर्षों तक पूर्णतया शुद्ध रूप में रखा जा सका है । यद्यपि ये वेद मौखिक रूप से शिष्य परंपरा के द्वारा शिष्यों को दिए गए, तथापि इनमें एक स्वर या एक वर्ण का भी अन्तर नहीं होने पाया है ।
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सं० सा० इ०-२