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संस्कृत नाटक
२३१ शाकुन्तल' नाम पड़ने का कारण भी यही है । दुष्यन्त शिकार खेलते हुए कण्व ऋषि के आश्रम पर पहुँचते हैं । कण्व बाहर गये हुए थे। ऋषि की पोष्य-पुत्री शकुन्तला ने उसका आतिथ्य किया। दोनों का परस्पर प्रेम हो गया और दोनों ने गान्धर्व विवाह कर लिया। दुष्यन्त कुछ दिन बाद अपने राज्य को लौट आया । उसने शकुन्तला को आश्वासन दिया कि कुछ दिन में ही वह उसको अपनी राजधानी में बुला लेगा। उसने अपनी अँगूठी शकुन्तला को दी। शकुन्तला ने प्रेम-मग्न होने के कारण आए हुए दुर्वासा ऋषि का स्वागत नहीं किया। इस पर क्रुद्ध होकर दुर्वासा ने उसे शाप दिया कि उसका प्रेमी उसे भूल जाएगा और कोई पहचान दिखाने पर उसे स्मरण करेगा । कण्व ऋषि को आने पर सब समाचार ज्ञात हया। उन्होंने गर्भवती शकुन्तला को दुष्यन्त के पास भेजा । राजा शाप के कारण उसे पहचान न सका और उसने शकुन्तला को पत्नी के रूप में स्वीकार करने से निषेध कर दिया। मार्ग में जाते समय उस बेचारी शकुन्तला को अँगठी एक तालाब में गिर गई थी, अतः वह अपने सम्बन्ध के प्रमाणस्वरूप कुछ प्रस्तुत न कर सकी। उसकी माता मेनका उस समय प्रकट हुई और वह उसको स्वर्ग में ले गई । इस प्रकार समय बीतता गया । शकुन्तला के हाथ से जो अँगूठी जल में गिर गई थी, उसे एक मछली ने निगल लिया था। वह एक मछुए के हाथ पड़ी। वह उसे बेचने के लिए बाजार में लाया । वह अंगठी जब राजा के सामने लाई गई तब उसे शकुन्तला का स्मरण हुआ। उसने बहुत दुःख के साथ कई वर्ष बिताए । राजा दुष्यन्त को इन्द्र ने राक्षसों के साथ युद्ध के लिए आमन्त्रित किया। उसने सफलता के साथ युद्ध किया । लौटते समय उसने मारीचं ऋषि के आश्रम में, अपनी स्त्री शकुन्तला और अपने पुत्र भरत को देखा। इस प्रकार दोनों का सुखमय सम्बन्ध हो गया ।
स्थिर सौन्दर्य पूर्ण दृश्यों की रचना में कालिदास अत्यन्त उच्चकोटि की कला का प्रदर्शन करते हैं। मालविकाग्निमित्र में, कथावस्तु के व्यापार को सुगम बनाने में विदूषक, पण्डित, कौशिकी और बकुलावलिका बहुत