________________
२३०
संस्कृत साहित्य का इतिहास
पुत्र को देखा और उर्वशी ने विचारा कि अब उसका स्वर्ग को जाने का समय हो गया है । राजा ने निश्चय किया कि वह वन को चला जायेगा । इसी समय नारद वहाँ आये और उन्होंने इन्द्र का आदेश सुनाया कि उन्होंने स्वीकृति दी है कि उर्वशी पुरूरवा के साथ जीवन भर रहे । कुछ अन्तर के साथ यह कथा वेद, पद्मपुराण, मत्स्यपुराण, रामायण और महाभारत में मिलती है ।
इस नाटक के उत्तर-भारतीय संस्करण में चतुर्थ अंक में कई श्लोक अपभ्रंश में दिये गये हैं । यह स्पष्ट है कि ये श्लोक बाद में मिलाये गये हैं; क्योंकि कालिदास के समय में अपभ्रंश वाले श्लोक प्रचलित नहीं थे । इस नाटक को त्रोटक नाटक माना जाता है । त्रोटक नाटक में पाँच, सात, आठ या नौ अंक होते हैं । इसमें मानवीय और दिव्य घनटाएँ होती हैं । इसके प्रत्येक अंक में विदूषक रहता है । उपर्युक्त लक्षण के आधार पर विचार करने से ज्ञात होता है कि यह त्रोटक नाटक नहीं है, क्योंकि इसके प्रत्येक अंक में विदूषक नहीं है ।
इस नाटक का नाम सार्थक है । यह निर्देश करता है कि उर्वशी को पुरूरवा ने अपने विक्रम से जीता है । इसकी घटनाएँ कुछ मानवीय तथा कुछ स्वर्गीय हैं । इसके चतुर्थ अंक में राजा की उन्मत्तावस्था का वर्णन नाटकीय दृष्टि से असंगत सा है, तथापि यह अनिर्वचनीय कोमल भावनाओं से पूर्ण है । इस नाटक के कथानक ने अवसर प्रदान किया है कि कालिदास प्रकृति के वर्णन में अपनी योग्यता का पूर्ण प्रदर्शन कर सके ।
शाकुन्तल नाटक में सात अंक हैं । इसमें दुष्यन्त और शकुन्तला के प्रेम का वर्णन है । इसकी कथा महाभारत में वर्णित शकुन्तलोपाख्यान के आधार पर है । दुष्यन्त की अँगूठी और दुर्वासा के शाप का उल्लेख कर कालिदास ने मूल कथा में परिवर्तन कर दिया है । नायक द्वारा नायिका को दी गई अभिज्ञानस्वरूप अँगूठी के खो जाने से नाटक सजीव सा हो जाता है तथा नायक और नायिका का चरित्र अधिक निखर जाता है । नाटक के 'अभिज्ञान