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संस्कृत साहित्य का इतिहास
युद्ध के वर्णन में शब्दालंकारों के प्रयोग में निपुणता दिखाई है। यह कहा जा सकता है कि १९वें सर्ग में शब्दालंकारों के प्रयोग में माघ भारवि से आगे निकल गया है। एक श्लोक ऐसा है, जिसमें केवल एक ही व्यंजन का प्रयोग किया गया है। उसका व्याकरण के नियमों और अलंकारों पर असाधारण अधिकार है । उसका बहुत व्यापक शब्दावली पर अधिकार है। यह कहा जाता है कि माघ के ६ सर्ग बीतने पर कोई नया शब्द शेष नहीं रह जाता है। इसके प्रत्येक सर्ग के अन्तिम श्लोक में श्री शब्द का प्रयोग मिलता है । माघ के विषय में अतिप्रसिद्ध उक्ति है कि माव के काव्य में उपमा, अर्थगौरव और लालित्य ये तीनों गुण उपलब्ध होते हैं । ___वाक्पति ने प्राकृत में गौडवहो नामक काव्य लिखा है । इसमें १२०६ श्लोक हैं। इसमें कन्नौज के राजा यशोवर्मा के द्वारा गौड राजकुमार के वध का वर्णन है। यशोवर्मा वाक्पति का आश्रयदाता है । यह काव्य अपूर्ण है । इसमें कश्मीर के राजा ललितादित्य से ७३३ ई० के लगभग यशोवर्मा के पराजित होने तक का वर्णन है। ऐसा जान पड़ता है कि वाक्पति ने यह ग्रन्थ ७३३ ई० के बाद लिखा । अतः इस काव्य का समय ७४० ई० के लगभग होता है । वाक्पति यह स्वीकार करता है कि वह प्रसिद्ध नाटककार भवभूति का ऋणी है । उसका यह भी कथन है कि भवभूति यशोवर्मा का आश्रित कवि था । इस काव्य में लम्बे समास बहुत हैं । इससे श्रेण्य संस्कृत के काल में प्राकृत का क्या स्थान था, यह ज्ञात होता है । लेखक ने अपने काव्य में अपने पूर्व रचित एक काव्य मधुमथनविजय का उल्लेख किया है, परन्तु वह अब नष्ट हो गया है। १. तावद् भा भारवे ति यावन् माघस्य नोदयः ।
उदिते तु पुनर्माघे भारवेर्भा रवरिव ।। २. शिशुपालवध १६--११४ । ३. नवसर्गगते माघे नवशब्दो न विद्यते ।
४. उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम् । - दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति त्रयो गुणाः ।।