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छहढाला
समिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपण समिति और व्युत्सर्गसमिति ये पाँच समिति हैं। पाँचों इन्द्रियोंके क्रमशः स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द ये पाँच विषय हैं। इन पाँचों विषयोंके अनिष्ट या अशुभ रूप मिलने पर उनमें द्वेष नहीं करना और इष्ट या शुभ रूप मिलने राग नहीं करना सो पंचेन्द्रिय-विजय नाम के पाँच मूलगुण कहलाते हैं । इन पन्द्रह गुणोंके अतिरिक्त साधुओं को छह आवश्यक प्रति-दिन करने पड़ते हैं। वे इस प्रकार हैं: -- सामायिक - प्राणिमात्रपर समताभाव रखना, सुखदुःख देने वाले शत्रु-मित्र पर, महल- मसान पर, कञ्चन - काँच पर, निन्दा - स्तुतिमें सम भाव रखना सो सामायिक नामका प्रथम आवश्यक है। चौबीस तीर्थकरोंकी स्तुति करना सो चतुर्विंशतिस्तवन नामक दूसरा आवश्यक है। किसी एक तीर्थंकर की स्तुति करना सो बन्दना नामका तीसरा आवश्यक है । शास्त्रोंका अभ्यास करना, पढ़ना, पढ़ाना बाँच कर दूसरोंको सुनाना सो स्वाध्याय नामका चौथा आवश्यक है । लगे हुए दोषोंकी शुद्धिके लिए गुरुके समीप जाकर, या उनके अभाव में परोक्ष रूप से अपने अपराधोंकी क्षमा-याचना करना, उनके लिये खेद प्रगट करना सो प्रतिक्रमण नामका पाँचवाँ आवश्यक है । अपने शरीर तसे अहंभाव या ममता छोड़ना सो कायोत्सर्ग नामका छठा आवश्यक है । साधुओं को यह छह कार्य प्रति-दिन करना अत्यन्त जरूरी बतलाया गया है, इसीलिये इन्हें षट् आवश्यक कहते हैं । इस प्रकार पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय