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छठवीं ढाल
१८५ विजय और षद आवश्यक ये सब मिल कर २१ मूल गुण होते हैं । अब शेष रहे सात मूलगुणोंको कहते हैं:
१-दीक्षा लेनेके बाद जीवन-पर्यन्त जलकायिक जीवोंकी रक्षार्थ स्नान नहीं करना, २-दांतोंको मञ्जन, दातुन आदिसे सौन्दर्यकी रक्षाके लिए नहीं धोना, ३-शरीरकी शीत आदिसे रक्षाके लिए लेशमात्र भी वस्त्र आदि नहीं रखना किन्तु सदा दिगम्बर वेष रखना, ४-रात्रिके पिछले भागमें एक ही करवटसे जमीनपर अल्प-एक मुहूर्त प्रमाणकी निद्रा लेना, ५-दिनमें एक बार अल्प आहार लेना, ६-खड़े खड़े आहार लेना और ७ शिर वा दाढ़ीके बालोंका अपने हाथोंसे लोंच करना । इस प्रकार सब मिलाकर साधुके अट्ठाईस मूलगुण होते हैं जिनका पालन करना प्रत्येक दिगम्बर साधुके लिए अत्यन्त आवश्यक माना गया है । उक गुणोंमेंसे एक भी गुणकी कमी होनेपर साधु अपने साधुपनसे गिरा हुआ माना जाता है । इन अट ठा. ईस मूलगुणोंका वर्णन करते हुए ग्रन्थकारने पांच समितियोंके पश्चात् तीन गुप्तियोंका और भी वर्णन किया है, उसका अभिप्राय यह है कि कुछ आचार्योंने सकल चारित्रके तेरह भेद किये हैं, जिसमें पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति, इन तेरह का पालन सकलसंयमीके लिए अत्यावश्यक बतलाया गया है। मनकी चञ्चलताको रोककर उसे स्थिर करना मनोगुप्ति है। वचनकी समस्त शुभ-अशुभ प्रवृत्तिको रोककर निर्दोष मौन-धारण करना सो वचनगुप्ति है। शरीरकी गमनागमन, हलन-चलनादि