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छठवीं ढाल
अरि मित्र महल मसान कंचन कांच निन्दन थुतिकरन, अर्धावतारन असि-प्रहारनमें सदा समता धरन ॥ ६॥
अर्थ-वे मुनिराज सदा समता भावको संभालते हैं, स्तुतिका उच्चारण करते हैं और जिन-देवकी वन्दना करते हैं। नित्य ही शास्त्रोंका अभ्यास करते हैं, प्रतिक्रमण करते हैं और अपने शरीरसे ममता त्यागकर कायोत्सर्ग करते हैं। इस प्रकार वे प्रतिदिन छह आवश्यकों का नियमपूर्वक पालन करते हैं। वे स्नान नहीं करते, दांतुन नहीं करते, लेशमात्र भी वस्त्रका आवरण नहीं रखते। पिछली रात्रिमें भूमिके ऊपर एक ही आसनसे कुछ थोड़ासा शयन करते हैं । वे साधु दिनमें एकबार खड़े खड़े ही थोड़ासा अपने हाथोंमें रखा हुआ आहार ग्रहण करते हैं। केशलुश्च करते हैं । परीषहोंसे नहीं डरते हैं और सदाकाल अपने ध्यानमें लगे रहते हैं। ऐसे मुनिराज शत्रु और मित्रमें, महल
और श्मसानमें, कंचन और काँचमें, निन्दा और स्तुतिमें, अर्घ उतारनेमें तथा तलवारके प्रहारमें सदा समताभावको धारण करते हैं।
विशेषार्थ-सकल-चारित्रके धारक दिगम्बर साधुओंके अट ठाईस मूलगुण बतलाये गये हैं, उनका ही वर्णन यहाँतक ग्रन्थकारने कियाहै। वे अट ठाईस मूल गुण इस प्रकार हैं:अहिंसामहाव्रत, सत्यमहाव्रत, अचौयमहाव्रत, ब्रह्मचर्यमहाव्रत, अपरिग्रहमहाव्रत, ये पाँच महाब्रत हैं। ईयोसमिति, भाषा