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चर्चापत्र, -- ३७-आगे दलिचंद सुखराज लिखतेहै,-रायपसेणीसूत्रों परदेशीराजाका-और-ज्ञातासूत्रने धर्मरुचि-अगगारका-उदाहरणदेतेहो, मगर-वो-चरितानुवादहै,___ (जवाब.) जो-बात-मुताबिक विधिवादक है-वो-खास ! विधिवादहै, उसको चरितानुवादकहना गलतहै, जैसे-तीर्थकर-गणधरोने जिसजिस बातकाहुकम फरमायाहो-और-मुताबिकउसके किसीने बरतावकियावो-खासविधिवादहै, चरितानुवाद नही, चरितानुवाद उसकानामहै, जिसवातमें तीर्थकर-गणधरोंका हुकम-न-हो,-औरवो-कामकोइकरे इसलिखनेका मतलब यहहुवाकि-परदेशीराजाकाऔर-धर्मरुचि-अणगारका उदाहरण-मुताबिकविधिवादके है, चरितानुवादकीतरह, त्यागनेयोग्यनहीं,-समजसको-तो-समजलो, बात क्याहुइ ? बात यहहुइकि-इरादेधर्मके वचनसेशासनदेना, खासविधिवादहै, इसमेंकोइशकनहीं, हरेकजैनमुनि-जब-व्याख्यान-सभामें धर्मशास्त्रवाचना शुरुकरते है, तो यहनिचे दिखलायाहुवा-श्लोकजरुर बोलते है-..
अज्ञानतिमिरांधानां-ज्ञानांजनशलाकया,
नेत्रमुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः-१ इसका माइना यहहुवाकि-अज्ञानरुपी-अंधकारसें अंधेवनेहुवे शख्शोके नेत्रोंमें जिनोने ज्ञानरुपी-शलाकासे-अंजनकिया-उसगुरु महाराजको नमस्कारहो, देखिये ! इसमें अझानतिमिरांधानां-औसापाठहै, इसकामलतब क्याहुवा ? सोचो !
(बयान-दीपकरखने के बारेमें,-) ३८-फिर दलिचंद सुखराज-बयानकरते है, दीपकरखनेकेबारेमें