________________
जाहिर उद्घोषणा ५. फिरभी देखिये यह बात प्रत्यक्ष अनुभव सिद्धहै कि ढूंढिये साधु हमेशा मुंहपत्ति बांधी रखते हैं वह लोग कभी दुर्गधी वाले रास्ते होकर जावें तो उन्होंको कोईभी दूसरे लोग मुंहपात्तसे मुंह बांधनेका नहीं कह सकते और जिन्होंके मुंह खुले होंगे उन्होंको दुर्गधीकी जगह मुंह बाधनेका कह सकतेहैं इसी तरहसे गौतमस्वामीकेभी पहिलेसे मुंह बंधा हुआ नहींथा इसलिये मृगाराणीने मुंहपत्ति से मुंह बांधनेका कहाहै. अगर कहा जाय कि दुर्गधी तो नाकसे आतीहै परंतु मुंहसे नहीं. यहभी अनसमझ की बातहै, क्योंकि उबासी वगैरह करते समय या बातें करते समय नाक-मुंह दोनोंसे श्वासोश्वास आताहै और दुर्गधभी नाक-मुंह दोनों से पेटमें जातीहै इसलिये मुंहबांधो ऐसा कहनेसे नैगमनयके मतसे सामान्यपने नाक-मुंह दोनों बांधनेका अर्थहोताहै। इसलिये अतीवगहन आशय वाले आगम वचनोंका भावार्थ समझे बिना मुंहसे पेटमें दुर्गधी जानेका निषेध करना और गौतमस्वामीके पहिले सेही मुंहबंधा ठहराने बाबत कुयुक्तियें करना प्रत्यक्ष उत्सूत्र प्ररूपणाहै।
६. निरयावली सूत्रमें सोमिलतापसने अपने मुंहपर काष्टमुद्रा याने-लकड़ेकी पटड़ी बांधीथी, ऐसा अधिकारहै. उसको देखकर ढूंढिये लोग जैनसाधुको हमेशा अपनेमुंहपर मुंहपत्ति बांधीरखनेका ठहराते हैं सो सर्वथा उत्सूत्र प्ररूपणाहै. क्योंकि सोमिल ब्राह्मणने पहिले श्रीपार्श्वनाथस्वामीके पास सम्यक्त्वमूल श्रावकके बारह व्रत लियेथे, श्रावक धर्म पालनकरताथा परंतु पीछेसे साधुओंकी संगतके अभावसे सम्यक्त्व से और श्रावक धर्मसे पीछा गिरगया, मिथ्यात्वी धर्म करने लगा तथा कंदमूल खानेवाले गंगानदीमें स्नान करनेवाले दिशापोषक तापसोंके पास तापसी दीक्षा ली और अपने मुंहपर काष्ठमुद्रा बांधकर मौन रहनेका नियमलिया, यह सब मिथ्यात्वीपनेकी क्रियाथी इसलिये पार्श्वनाथ स्वामीके एक भक्त देवताने सोमिल तापसको पांच रात्रितक बार. बार उपदेश देकर काष्ट मुद्रादि मिथ्यात्वी क्रिया छुड़वाकर सम्यक्त्व सहित श्रावकके १२व्रत अंगीकार करवाये तबसोमिल तापस श्रावकधर्म पालन करने लगा परंतु पहिले जो काष्टमुद्रादि मिथ्यात्वी क्रिया की थी उस क्रियाकी आलोयणा न ली, उससे विराधक हुआ और आयुः पूर्ण करके शुक्रनामा ग्रहपनेमें उत्पन्न हुआ. यदि काष्ट मुद्रादि मिथ्यात्वी