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जाहिर उद्घोषणा.
हैं यहभी प्रत्यक्ष उत्सूत्र प्ररूपणाही है क्योंकि दीक्षालेकर राजकुमार मुनियोंने मुंहपत्तिसे मुंह बांधा नहीं था इसलिये गृहस्थ नाईके मुंहबांधनेकी बात को आगे करके भोले जीवोंको भ्रममें डालकर हमेशा मुंहपधनेका मत स्थापन करना बड़ी भूल है । अगर गृहस्थ नाईकी तरह ढूंढिये मुंह बांधना मानते होवें तब तो मुखकोश जैसा लंबा वस्त्र लेकर नाक मुंह दोनों बांधने चाहिये, जिसके बदले नाक खुला रखकर अकेला मुंहबांधनेका ठहराना सर्वथा अनुचित है ।
४. विपाकसूत्र के प्रथम अध्ययनमें गौतमस्वामी मृगाराणी के जन्माध बहुत दुःखी और रोगीष्ट मृगापुत्रको देखनेके लिये गये, तब मृगापुत्रके ठहरनेके दुर्गंधी वाले भूमिघरका दरवाजा खोलनेके समय मृगाराणीने वस्त्र से पहिले अपना मुंहबांधा और दुर्गधीका बचाव करनेकेलिये गौतमस्वामीको भी कहा कि आपभी अपनी मुंहपत्तिसे मुंह बांध लें. इस बात से साबित होता है कि गौतमस्वामीके मुंह पर मुंहपत्ति पहिले बांधी हुई नहीं थी, किंतु हाथमें थी. इसलिये मृगाराणीने दुर्गधीका बचाव करने के लिये मुंह पर बांधनेका कहा, यदि पहिलेसे बांधी हुई होती तो फिर दूसरी बार बांधनेका कभी नहीं कहती, यह बात अल्पमति वाले भी अच्छी तरह से समझ सकते हैं, तोभी ढूंढिये लोग इस सत्य alant उडाने के लिये और अपनी कल्पित बात को स्थापन करने के लिये कहतेहैं कि मृगाराणीने नाक बांधनेका कहा है, ऐसा ढूंढियोंका कहना सर्वथा झंठ "मुहपोतीयाए मुह बंधेह" मुंहपत्ति से मुख बांधो, ऐसा मूल पाठ होने परभी नाक बांधनेका कहना प्रत्यक्ष मूंठहै और गौतमस्वामी के तथा मृगाराणी के लिये दुर्गधीका बचाव करने संबंधी एकही अधिकारमें एकही समान पाठ होनेसे यदि गौतमस्वामीका पहिलेसे मुंहबंधा हुआ मानोंगे तो मृगाराणीकाभी मुंह पहिलेसे बंधा हुआ ठहर जावेगा और मृगाराणीका मुंह खुला मानोगे तो गौतमस्वामीका भी मुंह खुला मानना पडेगा. एकही बात में, एकही संबंध में दोनोंके लिये मुंह बांधनेका समान पाठ होनेपर भी मृगाराणीका मुंह खुला और गौतमस्वामीका मुंह बंधा हुआ ऐसा पूर्वापर विरोधी (विसं वादी) उलट पुलट अर्थ कभी नहीं होसकता इसलिये गौतमस्वामीका पहिलेसे ही मुंहबंधा हुआ ठहराना बडी भूल है ।
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