________________
२
न्यायरत्नदर्पण.
वर्ष पैदलविहारसे और बाद रैल से मुल्क, मगध, बंग, अंग, कालिंग, कौशल, राजपुताना, मध्यप्रदेश, वराड, खानदेश, मालवा, दखन, तैलंग, कर्णाटक, महीशूर, कोकन, मारवाड, मेवाड, सिंध, पंजाब, कश्मिर वगेरामें कई दफे जाना आना हुवा. जहां जहां जिस जिस गछके श्रावक मिलते रहे अपने अपने गछसमुदायके बर्ताव करते रहे और फायदा धर्मका हासिल करते रहे.
मजहबी लेख लिखने में या किसीके सवालोंपर जवाब देनेमें मुताविक धर्मशास्त्रोके और दाखलेदलीलोसें काम लेताहुं, धर्मके बारेमें कोई सवाल पुछे ऊसकामाकुल जवाब देना धर्मगुरुओका फर्ज है. और यह एक तरहकी नेंकी है. चाहे कोई उस बातको मंजुर करे या न करे धर्म और प्रीत जोराजोरी नही होती. अपनी कोंमको धार्मिक फायदा पहुचाना और सबको समझमे आसके ऐसे ग्रंथ बनाना यह भी धर्मगुरुओका एक कर्तव्य कार्य है, मेरी तर्फ से बने हुवे ग्रंथ मानवधर्मसंहिता, जैनसंस्कारविधि, रिसाला मजहब इंढिये, त्रिस्तुतिपरामर्श, बयान पारसनाथ पहाड, जैनतीर्थगाइड और सनमपरस्तियेजैन छपकर जाहिर होचुके है, कई वर्सो जैनपत्र में मेरे लेख छपते है, आम जैनसंघ जानता है.
संवत् (१९७०) मे जब मेरा चौमासा शहरपुने मुल्क दखनमें हुवा तारिख (२७) जुलाई सन (१९१३) के जैनपत्र में मेने जहोरी दलिपसिंहजी साकीन कलकताके सवालोके जवाब दिये. ऊन जवाबोको पाकर मुनासिब था बजरीये छापेके ऊनका माकुल जवाब देते. ऊनाने बजरीये चीटियोके मुजसे पुछना शुरू किया, मेरा रवाज है वादविवाद के सवालोका जवाब बजरीये छापेके देना लेना. ताकि आमलोगोको फायदा पहुंचे, जब मेने उनकी चीठियोके जवाब बजरीए चीठीके नही दिया, उनोने कार्तिक वदी (८) संवत् (१९७०) के रौजें सोलह नोकी एक छोटीसी किताब छपवाई