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न्यायरत्नदर्पण. जिसका नाम न्यायरत्नजीकी बेंइन्साफी है, उसमें उनोने अपनी भेजी हुई पांचछह चीठियोंकी नकल और सात सवाल छपवाये उनका जवाब इस न्यायरत्नदर्पण किताबमें देताहूं. सुनिये ! . जहोरी दलिपसिंहजीने अपनी किताबके टाइटल पेजपर लिखा है, न्यायरत्नजीकी बेइन्साफी और ऊत्सूत्रप्ररुपणा. __ (जवाब) न्यायरत्नजीकी बेइन्साफी और उत्सुत्रप्ररुपणा क्याथी ? बतलाना चाहिये था. मेने मेरे तारिख (२७) जुलाइ सन (१९१३)के लेखमें लिखा था कि अधिक महिना चातुर्मासिक वार्षिक और कल्याणिकपर्वके व्रतनियममें गीनतीमें नहीं लेना और हरेक महिनेकी जो बारां पर्वतिथि है, टुट जाय तो तोडना नही, पहलेकी अपर्वतिथिमें उस पर्वतिथिको शुमार करना. हरेक महिनेकी बारां पर्वतिथिदुज पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी, पौर्णमासी इसी तरह वदीमें अमावास्या वगेरा जानना. ए वारां पर्वतिथिमेसे कोईभी टुट जाय तो पीछली तिथिमें यानी दुजपर्वतिथि टुट जाय तो प्रतिपदा के रौज दुज शुमार करना. जहां चतुर्दशी और पौर्ण मासी दो पर्वतिथि शाथ आवे और इनमें से कोई पर्वतिथि टुट जाय तो दोनोको नहीं तोडना. त्रयोदशीको तोडकर दोनो कायम रखना और अगर हरेक महिनेकी बारां पर्वतिथिमें कोई पर्वतिथि बढजाय तो पहेलीकों पर्वतिथि न मानकर अगलीको पर्वतिथि शुमार करना, पर्वतिथि घटे तो पीछलीको मीले और बढे तो अगलीको मीले यह एक इन्साफकी बात है. जैसे तीन शख्श एक पीछे एक चलरहे है, उनमें बीचला शख्श अगर चलताहुवा थक जाय तो पीछलेकों मिलेगा, और अगर वही शख्श चलता हुवा ज्यादा चलजाय तो अगलेको मिलेगा. कहिये ! इसमें बेइन्साफ क्या था? ___ आगे आपनी किताबके पृष्ट अवलपर जहोरी दलिपसिंहजीने लिखा है, श्री जिनाज्ञाभिलाषी सर्व सज्जनोसे निवेदन करताई