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आस्रवाधिकार
हेदू चदुव्वियप्पो अट्ठवियप्पस्स कारणं भणिदं। तेसिं पि य रागादी तेसिमभावे ण बझंति ।।
रागादि आसवभाव जो सदृष्टियों के वे नहीं। इसलिए आसवभाव बिन प्रत्यय न हेतु बंध के॥ अष्टविध कर्मों के कारण चार प्रत्यय ही कहे।
रागादि उनके हेतु हैं उनके बिना बंधन नहीं॥ राग-द्वेष-मोहरूप आम्रवभाव सम्यग्दृष्टियों के नहीं होते; इसलिए उन्हें आस्रवभाव के बिना द्रव्यप्रत्यय कर्मबंध के कारण नहीं होते।
मिथ्यात्वादि चार प्रकार के हेतु आठ प्रकार के कर्मों के बंध के कारण कहे गये हैं और उनके भी कारण जीव के रागादि भाव हैं।
(१७९-१८०) जह पुरिसेणाहारो गहिदो परिणमदि सो अणेयविहं। मंसवसारुहिरादी भावे . उदरग्गिसंजुत्तो।। तह णाणिस्स दु पुव्वं जे बद्धा पच्चया बहुवियप्पं । बझंते कम्मं ते णयपरिहीणा दु ते जीवा।।
जगजन ग्रसित आहार ज्यों जठराग्नि के संयोग से। परिणमित होता वसा में मज्जा रुधिर मांसादि में || शुद्धनय परिहीन ज्ञानी के बँध जो पूर्व में।
वे कर्म प्रत्यय ही जगत में बाँधते हैं कर्म को॥ जिसप्रकार पुरुष के द्वारा ग्रहण किया हुआ आहार जठराग्नि के संयोग से अनेकप्रकार मांस, चर्बी, रुधिर आदि रूप परिणमित होता है; उसीप्रकार शुद्धनय से च्युत ज्ञानी जीवों के पूर्वबद्ध द्रव्यास्रव अनेक प्रकार के कर्म बाँधते हैं।
(दोहा) राग-द्वेष अर मोह ही, केवल बंधकभाव। ज्ञानी के ये हैं नहीं, तातें बंध अभाव।।११९।।
-समयसार कलश पद्यानुवाद