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संवराधिकार
( १८१ से १८३ ) उवओगे उवओगो कोहादिसु णत्थि को वि उवओगो । कोहो कोहे चेव हि उवओगे णत्थि खलु कोहो । अट्ठवियप्पे कम्मे णोकम्मे चावि णत्थि उवओगो । उवओगम्हि य कम्मं णोकम्मं चावि णो अत्थि ।। एदं दु अविवरीदं णाणं जड़या दु होदि जीवस्स । तइया ण किंचि कुव्वदि भावं उवओगसुद्धप्पा ॥।
उपयोग में उपयोग है क्रोधादि में उपयोग ना । बस क्रोध में है क्रोध पर उपयोग में है क्रोध ना || अष्टविध द्रवकर्म में नोकर्म में उपयोग ना । इस ही तरह उपयोग में भी कर्म ना नोकर्म ना || विपरीतता से रहित इस विधि जीव को जब ज्ञान हो ।
उपयोग के अतिरिक्त कुछ भी ना करे तब आतमा || उपयोग में उपयोग है, क्रोधादि में उपयोग नहीं है और क्रोध क्रोध में ही है, उपयोग में क्रोध नहीं है। इसीप्रकार आठ प्रकार के कर्मों में और नोकर्म में भी उपयोग नहीं है और उपयोग में कर्म व नोकर्म नहीं हैं। जब जीव को इसप्रकार का अविपरीत ज्ञान होता है, तब यह उपयोगस्वरूप शुद्धात्मा उपयोग के अतिरिक्त अन्य किसी भी भाव को नहीं करता । ( १८४ - १८५ ) जह
कणयमग्गितवियं पि कणयभावं ण तं परिच्चयदि । तह कम्मोदयतविदो ण जहदि णाणी दु णाणित्तं ।।