________________
-----गाथा समयसार
संता दुणिरुवभोज्जा बाला इत्थी जहेह पुरिसस्स। बंधदि ते उवभोज्जे तरुणी इत्थी जह णरस्स।। एदेण कारणेण दु सम्मादिट्ठी अबंधगो भणिदो। आसवभावाभावे ण पच्चया बंधगा भणिदा।। पहले बँधे सदृष्टिओं के कर्मप्रत्यय सत्व में। उपयोग के अनुसार वे ही कर्म का बंधन करें। अनभोग्य हो उपभोग्य हों वे सभी प्रत्यय जिसतरह। ज्ञान-आवरणादि वसुविध कर्म बाँधे उसतरह। बालवनिता की तरह वे सत्त्व में अनभोग्य हैं। पर तरुणवनिता की तरह उपभोग्य होकर बाँधते॥ बस इसलिए सदृष्टियों को अबंधक जिन ने कहा।
क्योंकि आसवभाव बिन प्रत्यय न बंधन कर सके। सम्यग्दृष्टिजीव के पूर्वबद्ध समस्त प्रत्यय (द्रव्यासव) सत्तारूप में विद्यमान हैं। वे उपयोग के प्रयोगानुसार कर्मभाव (रागादि) के द्वारा नवीन बंध करते हैं।
निरुपभोग्य होकर भी वे प्रत्यय जिसप्रकार उपभोग्य होते हैं; उसीप्रकार सात-आठ प्रकार के ज्ञानावरणादि कर्मों को बाँधते हैं।
जिसप्रकार जगत में बाल स्त्री पुरुष के लिए निरुपभोग्य है और तरुण स्त्री (युवती) पुरुष को बाँध लेती है; उसीप्रकार सत्ता में पड़े हुए वे कर्म निरुपभोग्य हैं और उपभोग्य होने पर, उदय में आने पर बंधन करते हैं। __ इसकारण से सम्यग्दृष्टि को अबंधक कहा है; क्योंकि आस्रवभाव के अभाव में प्रत्ययों को बंधक नहीं कहा है।
(१७७-१७८) रागो दोसो मोहो य आसवा णत्थि सम्मदिट्ठिस्स। तम्हा आसवभावेण विणा हेदू ण पच्चया होंति ।।