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कर्ताकर्माधिकार
गुण-दोष उत्पादक कहा ज्यों भूप को व्यवहार से । त्यों जीव पुद्गल द्रव्य का कर्ता कहा व्यवहार से ॥ आत्मा पुद्गल द्रव्य को उत्पन्न करता है, करता है, बाँधता है, परिणमन कराता है और ग्रहण करता है - यह व्यवहारनय का कथन है ।
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जिसप्रकार राजा को प्रजा के दोष और गुणों को उत्पन्न करनेवाला कहा जाता है; उसीप्रकार यहाँ जीव को पुद्गल द्रव्य के द्रव्य-गुणों को उत्पन्न करनेवाला कहा गया है।
( १०९ से ११२ )
सामण्णपच्चया खलु चउरो भण्णंति बंधकत्तारो । मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ।। सिं पुणो वि य इमो भणिदो भेदो दु तेरसवियप्पो । मिच्छादिट्ठी आदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ॥ एदे अचेदणा खलु पोग्गलकम्मुदयसंभवा जम्हा । ते जदि करेंति कम्मं ण वि तेसिं वेदगो आदा ।। गुणसण्णिदा दु एदे कम्मं कुव्वंति पच्चया जम्हा । तम्हा जीवोऽकत्ता गुणा य कुव्वंति कम्माणि ।। मिथ्यात्व अरु अविरमण योग कषाय के परिणाम हैं। सामान्य से ये चार प्रत्यय कर्म के कर्ता कहे ॥ मिथ्यात्व आदि सयोगि-जिन तक जो कहे गुणथान हैं। बस ये त्रयोदश भेद प्रत्यय के कहे जिनसूत्र में | पुद्गल करम के उदय से उत्पन्न ये सब अचेतन । करम के कर्ता हैं ये वेदक नहीं है आतमा ।। गुण नाम के ये सभी प्रत्यय कर्म के कर्ता कहे । कर्ता रहा ना जीव ये गुणथान ही कर्ता रहे । चार सामान्य प्रत्यय बंध के कर्ता कहे जाते हैं। उन्हें मिथ्यात्व. अविरति, कषाय और योग के रूप में जानना चाहिए ।