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गाथा समयसार इन चार प्रत्ययों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगकेवली गुणस्थान पर्यन्त तेरह भेद कहे गये हैं। . - __ ये सभी अचेतन हैं, क्योंकि पुद्गलकर्म के उदय से उत्पन्न होते हैं। यदि ये चार प्रत्यय या तेरह गुणस्थान रूप प्रत्यय कर्मों को करते हैं तो भले करें । आत्मा इन कर्मों का भोक्ता भी नहीं है। ___ चूँकि ये गुण नामक प्रत्यय अर्थात् गुणस्थान कर्म करते हैं, इसलिए जीव तो इन कर्मों का अकर्ता ही रहा और गुण ही कर्मों को करते हैं।
(११३ से ११५) जह जीवस्सअणण्णुवओगोकोहोवितहजदिअणण्णो। जीवस्साजीवस्स य एवमणण्णत्तमावण्णं ।। एवमिह जो दुजीवो सो चेव दुणियमदो तहाऽजीवो। अयमेयत्ते दोसो पच्चयणोकम्मकम्माणं ।। अह दे अण्णो कोहो अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा। जह कोहो तह पच्चय कम्मं णोकम्ममवि अण्णं । उपयोग जीव अनन्य ज्यों यदि त्यों हि क्रोध अनन्य हो। तो जीव और अजीव दोनों एक ही हो जायेंगे| यदि जीव और अजीव दोनों एक हों तो इसतरह। का दोष प्रत्यय कर्म अर नोकर्म में भी आयगा॥ क्रोधान्य है अर अन्य है उपयोगमय यह आतमा।
तो कर्म अरु नोकर्म प्रत्यय अन्य होंगे क्यों नहीं ?| जिसप्रकार जीव से उपयोग अनन्य है; उसीप्रकार यदि क्रोध भी जीव से अनन्य हो तो जीव और अजीव में अनन्यत्व हो जायेगा, एकत्व हो जायेगा।
ऐसा होने पर इस जगत में जो जीव है, वही नियम से अजीव ठहरेगा और इसीप्रकार का दोष प्रत्यय, कर्म और नोकर्म के साथ भी आयेगा। यदि इस भय से तू यह कहे कि क्रोध अन्य है और उपयोगस्वरूपी