________________ 510 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) ज़रूरत भी नहीं है। वह केवलज्ञान तो अपने आप ही आता है। उसे माँगने नहीं जाना पड़ता। जैसे बड़ौदा की गाड़ी में टिकट-विकट लेकर बैठने के बाद बड़ौदा स्टेशन अपने आप ही आ जाता है, उस तरह से। आपको तो सिर्फ गाड़ी में बैठने की ज़रूरत है। बैठ गए और ये आज्ञा पालन करना है कि भाई, 'किसी स्टेशन पर उतर मत जाना। किसी जगह पर चाय-पानी अच्छे मिल रहे हैं, इसलिए वहाँ पर कहीं उतर मत पड़ना।' आपको ये भाई कहें तो भी कहना, 'यहाँ नहीं उतरना है, चलो, वापस बैठ जाओ!' ये तो कहेंगे कि, 'आओ, वह कैन्टीन अच्छी है।' तब भी हमें 'मना' कर देना है। प्रश्नकर्ता : पूरी तरह से पाँच आज्ञा पालन करने के बावजूद भी अगर कैन्टीन में जाए तो? दादाश्री : तो हर्ज नहीं है। जो पाँच आज्ञा का पालन कर रहा हो तो वह चाहे कहीं भी जाए, उसे बंधन नहीं है। लेकिन जो पाँच आज्ञा का पालन कर रहा हो, वह किसी भी स्टेशन पर उतरेगा ही नहीं न! ___आत्मा अर्थात् केवलज्ञान प्रकाश प्रश्नकर्ता : आत्मा अर्थात् ज्ञान। ज्ञान अर्थात् प्रकाश, प्रकाश के अलावा और कुछ है ही नहीं। प्रकाश ही, प्रकाश ही, प्रकाश ही! और मात्र प्रकाश अर्थात् किसी भी तरह का संयोग नहीं। कुछ नहीं, सिर्फ प्रकाश ही! तो फिर ज्ञायक भाव ही रहा? / दादाश्री : ज्ञायक भाव। जानने-देखने के भाव में ही रहा, वही आनंद! खुद को और कोई ज़रूरत नहीं है। जानने-देखने के भाव में तो कुछ करना नहीं होता, अंदर झलकता है, खुद के अंदर ही। किसी भी प्रकार की क्रिया नहीं, अक्रिय। क्रिया करने से थकान होती है, सो जाना पड़ता है, नींद आ जाती है। प्रश्नकर्ता : पहले अज्ञान दशा में तो हमारी जो दृष्टि है, वह ऐसी चीज़ों पर अर्थात् पुद्गल पर रहती थी, जिसमें देखने और जानने का गुण था ही नहीं लेकिन अब आपने ज्ञान दिया है, तब से हम दृष्टि उसमें लगाते