________________ 508 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) है। अब ये मन-वचन-काया और अहंकार, लेकिन वास्तव में तो हम ऐसा कहते हैं न कि अभी भी मूल आत्मा देखता-जानता नहीं है। आत्मा तो बहुत दूर है उससे। दादाश्री : यह उसका विषय नहीं है। यह तो, जो इस इन्द्रिय दृष्टि से दिखाई देता है, वह विषय उनका नहीं है। प्रश्नकर्ता : देखने-जानने की शक्ति मूल आत्मा की ही है? दादाश्री : हाँ लेकिन अभी बीच में प्रज्ञा का मीडियम है। प्रश्नकर्ता : अभी मीडियम छू जानता है लेकिन जानता वही है? दादाश्री : और कौन जानेगा फिर? लेकिन अभी प्रज्ञा के मीडियम के श्रू जानता है वह। प्रश्नकर्ता : तो उसे खबर पहुँचती ही नहीं? दादाश्री : मूल आत्मा को इससे कोई लेना-देना नहीं है! वह तो वीतराग है। और यह क्या हो रहा है वह सब, यह जो मीडियम खड़ा हुआ है, प्रज्ञाशक्ति, वह जानती है। प्रश्नकर्ता : तो वह जो ज्ञाता है, उस पर इस ज्ञेय का कोई भी असर नहीं होता? दादाश्री : हो ही नहीं सकता। उसे कोई संग स्पर्श नहीं कर सकता। उसे कोई भी चीज़ स्पर्श नहीं कर सकती। भावों से निर्लेप हैं, संग से असंग! प्रश्नकर्ता : उसका खुद का स्वधर्म सिर्फ देखने और जानने का ही है? दादाश्री : ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव ही है। यहाँ पर लाइट हुई हो न, वही बस, देखती है। उस लाइट में यदि जीवन होता तो देखती रहती। प्रश्नकर्ता : आत्मा का उपयोग होता होगा?