________________ 506 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) किसी का किसी से लेना-देना नहीं है, कोई किसी को हेल्प नहीं करता। किसी को कुछ भी छोड़ना नहीं है, ऐसे हैं ये तत्व! टंकोत्कीर्ण स्वभाववाले। कभी भी एकाकार नहीं हुए हैं, अलग के अलग ही रहे हैं। जैसे तेल और पानी दोनों इकट्ठे हो गए हों लेकिन उसमें दोनों अलग के अलग ही रहते हैं। बीचवाला उपयोग किसका? प्रश्नकर्ता : एक बार आपने सत्संग में कहा था कि एक स्टेज ऐसी होती है कि चंदूभाई करते हैं और उसी में तन्मयाकार रहता है, दूसरी स्टेज ऐसी होती है कि चंदूभाई जुदा और खुद जुदा अर्थात् यह कर्ता जुदा और खुद जुदा और तीसरी टॉप (उच्चतम) स्टेज ऐसी है कि चंदूभाई क्या कर रहे हैं उसे भी देखता है, आत्मा चंदूभाई को देखता है। वह समझाइए ज़रा। दादाश्री : क्या समझना है उसमें? प्रश्नकर्ता : वह स्टेज कौन सी कहलाती है? दादाश्री : ऐसा है न, ये जो देखने के कार्यों में पड़े हैं, तो कार्य को देखना वह सहज होना चाहिए। 'देखने' की क्रिया उसे करनी पड़ती है, ज्ञाता-दृष्टा रहना पड़ता है, उसे भी जाननेवाला है ऊपर। ज्ञाता-दृष्टा रहना पड़ता है। वह मेनेजर है। फिर उसका भी ऊपरी है। अंतिम ऊपरी को देखना नहीं पड़ता, सहज रूप से दिखता ही रहता है। प्रश्नकर्ता : अतः जिसे ज्ञाता-दृष्टा को देखना पड़ता है, वह कौन है और उसे भी जो देखता है, वह कौन है? दादाश्री : जो मूल है, वह उसे भी देखता है। वह मूल है। यह जो देखना पड़ता है वह बीचवाला भाग है, उपयोग, और उसे भी जाननेवाला ठेठ अंतिम दशा में हैं। इस आईने में, हम ऐसे बैठे हों और आईना उस तरफ रखा हो तो हम सब उसमें दिखाई देते हैं न तुरंत? प्रश्नकर्ता : हाँ। दादाश्री : क्या उसे देखना पड़ता है?