________________ 504 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : हाँ! फिर? प्रश्नकर्ता : तो यह क्या है? जो देखता है, उसे भी फिर देखता है। दादाश्री : वह है सब से अंतिम देखनेवाला, वही हम खुद हैं। उस देखनेवाले से आगे कोई देखनेवाला और कोई नहीं रहता। और यह जो देखनेवाला है, उसके पीछे सब से अंतिम देखनेवाला होता है। प्रश्नकर्ता : अर्थात् देखनेवाले से आगे भी देखनेवाला होता है? दादाश्री : यह जो देखनेवाले हैं, उससे आगे भी देखनेवाला होगा ही न! प्रश्नकर्ता : उससे आगे भी देखनेवाला होता है? दादाश्री : फिर उससे आगे देखनेवाला नहीं है। देखनेवाले से आगे देखनेवाले कोई नहीं हैं। वास्तव में जो देखनेवाला है, वही आत्मा है। प्रश्नकर्ता : तो पूरे दिन की देखने की जो प्रक्रिया थी तो उसे देखनेवाला जो है, उसे भी देखनेवाला और कोई होता है? ऐसा? तो प्रथम देखनेवाला कौन है? दादाश्री : उसे उपादान कहो, बुद्धि कहो या अहंकार कहो, और फिर उसे भी देखनेवाला। प्रश्नकर्ता : वह कौन है? दादाश्री : वह आत्मा है, देखनेवाले को जानता है। प्रश्नकर्ता : तो इसमें प्रज्ञा कहाँ से आई? दादाश्री : वही प्रज्ञा है न! मूल आत्मा तो मूल आत्मा ही है। प्रश्नकर्ता : अर्थात् पूरे दिन का जो देखता है वह अहंकार कहलाता है? अथवा उपादान कहलाता है? दादाश्री : बुद्धि, अहंकार, अज्ञाशक्ति।