________________ [7] देखनेवाला-जाननेवाला और उसे भी जाननेवाला 503 दादाश्री : दो चीजें हैं जो देखती हैं। एक तो प्रज्ञा है और प्रज्ञा का काम जब पूर्ण हो जाने के बाद आत्मा है। आत्मा ज्ञायक के रूप में रहता है। प्रज्ञा से लेकर आत्मा तक के देखनेवाले हैं। प्रज्ञा का काम पूरा हो जाए तो फिर आत्मा खुद, ज्ञायक बन जाता है। प्रश्नकर्ता : आत्मा का जो स्वरूप है, दर्पण की तरह है। दर्पण कहीं बाहर नहीं जाता देखने के लिए। दर्पण के अंदर सभी दृश्य दिखाई देते हैं। उसी प्रकार आत्मा के स्वरूप में तो सभी चीजें दिखाई देती हैं न! ऐसा है? दादाश्री : वह जो दिखाई देता है, वह अलग है लेकिन यह तो ज्ञायक है! अर्थात् अभी ज्ञाता कौन है? वह प्रज्ञाशक्ति है। हाँ, क्योंकि कार्यकारी है। मूल आत्मा कार्यकारी नहीं होता। जब तक यह संसार है, तब तक के लिए कार्यकारी शक्ति खडी हो गयी है, प्रज्ञा। वह प्रज्ञा सभी कार्य पूरे करके, समेटकर फिर मोक्ष में चली जाती है। प्रश्नकर्ता : अर्थात् मोक्ष के दरवाजे तक मदद करने के लिए यह प्रज्ञा है। दादाश्री : दरवाज़े तक नहीं, ठेठ मोक्ष में बिठा देती है। हाँ, पूर्णाहुति करवानेवाली यह प्रज्ञा है। ज़बरदस्त शक्तियाँ हैं। चाहे कैसे भी कष्ट आएँ, लेकिन फिर भी कष्ट घबरा जाएँ, इतनी शक्तियाँ हैं। इतनी बढ़ी हुई शक्तियों को देखते ही कष्ट घबरा जाता है। प्रश्नकर्ता : जितना देख पाते हैं, उतना स्पर्श नहीं करता और अगर उसमें एकाकार हो जाएँ, तो फिर महसूस होता है। दादाश्री : जितना देख सको उतना देखना और बाकी का जो नहीं देख पाते, उसके लिए प्रतिक्रमण करना। प्रश्नकर्ता : अभी हम बैठें और पूरे दिन का देखने बैठें, तब सबकुछ दिखता है और उस घड़ी ऐसा भी दिखता है कि हम आगे का देखने बैठे