________________ 500 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) हैं जैसे हमारे साथ चल रहे हों, ऐसा दिखता है। इसके पीछे कोई कारण है न? प्रश्नकर्ता : जो नज़दीक होते हैं, वे यों जाते हुए दिखाई देते हैं और दूरवाले साथ-साथ हों, ऐसा लगता है। दादाश्री : लेकिन ऐसा क्यों? बोले, बुद्धि समझ जाती है कि ये नज़दीक हैं, वे दूर के हैं। पुद्गल को देखनेवाली, प्रज्ञा प्रश्नकर्ता : इस पुद्गल की सभी चीजों को जो देखता है, वह देखने की जो क्रिया है, वह बुद्धि क्रिया है या ज्ञानक्रिया है? दादाश्री : वह देखने में जाए तो प्रज्ञा के विभाग में ही आता है न! अहंकार और बुद्धि की क्रिया से थोड़ा समझ में आता है, बाकी प्रज्ञा के बिना समझ में नहीं आ सकता। हमें अभी एप्रेन्टिस की तरह रहना है। प्रोबेशनरी नहीं कह सकते। प्रश्नकर्ता : अतः ज्ञान लेने के बाद जिन महात्माओं को ऐसा रहा करता है कि वह खुद शरीर से अलग है, शुद्धात्मा का लक्ष बैठ गया है और फिर देखने की सभी क्रियाएँ चलती रहती हैं तो वे सभी प्रज्ञा से होती हैं न? दादाश्री : सभी कुछ प्रज्ञाशक्ति से ही होता है। प्रज्ञा कुछ हद तक, जब तक फाइलों का निकाल करता है, तब तक प्रज्ञा है। फाइल खत्म हो गई तो फिर खुद ही, आत्मा ही जानता है। प्रश्नकर्ता : तो क्या इसका अर्थ ऐसा हुआ कि ज्ञानक्रिया से देखना तो बहुत दूर रहा? दादाश्री : वही ! प्रज्ञाशक्ति की ही ज्ञानक्रिया है। अभी वह ज्ञानक्रिया तो उत्पन्न हो गई है। फिर जब इन सभी फाइलों का निकाल हो जाएगा तब, विज्ञान क्रिया।