________________ 498 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) यदि जानपने' में आ जाए तो रियल (असली) ज्ञाता कहलाएगा। वह यह ज्ञाता-दृष्टा है! और आपको बार-बार अनुभव में आता ही है लेकिन ऐसा मेल बिठाना पड़ेगा। प्रश्नकर्ता : उस डिमार्केशन का खयाल किस तरह से आता है कि यह बुद्धि का देखना-जानना है और यह 'खुद का' देखना-जानना है? दादाश्री : बुद्धि का तो, ये जो आँखों से दिखाई देता है वही देखनाजानना है और जो कान से सुनाई देता है वह, जीभ से चखते हैं वह, वह सारी बुद्धि है। प्रश्नकर्ता : मतलब यह इन्द्रिय का हुआ, लेकिन बाकी का सब अंदर जो चल रहा होता है और बुद्धि से देखना कि ये पक्षपाती हैं, ऐसे हैं, वैसे हैं, वह सब भी बुद्धि ही देखती है न? दादाश्री : इन सब को देखना, वह बुद्धि का ही है। और आत्मा का ज्ञान-दर्शन तो देखना और जानना है, वह अलग चीज़ है। द्रव्यों को देखेजाने, द्रव्यों के पर्याय को जाने, उनके गुणों को जाने तो वह सब देखनाजानना, वह आत्मा है। या फिर अगर मन के सभी पर्यायों को जाने। बुद्धि तो मन के पर्यायों को कुछ हद तक ही जान सकती है, जबकि आत्मा मन के सभी पर्यायों को जानता है। बुद्धि को, परिस्थितियों को जानता है। अहंकार के पर्यायों को जानता है, सभी कुछ जानता है। जहाँ पर बुद्धि नहीं पहुँच सकती, वहाँ से उसकी (आत्मा के देखने की) शुरुआत होती है। प्रश्नकर्ता : यह बुद्धि कहाँ तक का देख सकती है? दादाश्री : कुछ हद तक का। सांसारिक ज्ञान चलता है, संसारिक काम-काज। प्रश्नकर्ता : अर्थात् यह जो आत्मा का देखना-जानना कहा गया है, तो वह द्रव्यों को जानता है? दादाश्री : हाँ। प्रश्नकर्ता : वह द्रव्यों को, द्रव्यों के गुणधर्म और द्रव्यों के पर्यायों