________________ [7] देखनेवाला-जाननेवाला और उसे भी जाननेवाला 497 दादाश्री : वह बुद्धि नहीं है, बुद्धि देखने में पड़ी होती है, यानी कि बुद्धि उस तरफ से देखती है और वह जो देख रही है, उसे 'हम' जानते हैं कि 'यह बुद्धि ही देख रही है, मैं नहीं देख रहा हूँ।' अतः जो बुद्धि को देखता है, वह 'हम' है। अतः वहाँ पर हम खुद दृष्टा की तरह काम करते हैं। अतः देखनेवाला कौन है, वह हमने ढूंढ निकाला। अर्थात् यह दृष्टा काम तो कर रहा है। प्रश्नकर्ता : लेकिन बुद्धि से परे नहीं जा पाते। तो यह बुद्धि में रहकर ही देखा जा रहा है? दादाश्री : नहीं, बुद्धि से परे तो जा पाए हो, लेकिन बुद्धि को अभी भी पोषण मिल रहा है। बुद्धि को कुछ कारणों की वजह से पोषण मिलता है, वे धीरे-धीरे कम हो जाते हैं। बाकी, बुद्धि से परे तो गए ही हैं वर्ना बुद्धि इन्हें यहाँ पर रोज़ आने ही नहीं देती। प्रश्नकर्ता : जब बुद्धि ज़रा दखल करती है, तब कहते हैं कि 'एक तरफ बैठ। मैं तो दादा के पास जाऊँगा।' चुप रह। दादाश्री : हाँ, तो कहना चाहिए कि चुप रह! प्रश्नकर्ता : दादा के पास आने में बुद्धि दखल नहीं करती। यह तो आता है, बिल्कुल प्रेम से। दादाश्री : प्रेम से इसका का मतलब ही यह है कि जो बुद्धि से आगे पहुँचा है, वह यह ज्ञान है। यह प्रज्ञा का काम है। बुद्धि यह देखती है लेकिन आपको अगर मन में ऐसा लगता है कि 'मैं देख रहा हूँ,' वह भ्रांति है। इन सभी ज्ञेय चीज़ों के ज्ञाता-दृष्टा 'मैं' नहीं लगता, लेकिन यह बुद्धि लगती है। लेकिन इस बुद्धि का ज्ञाता-दृष्टा कौन है? आत्मा। लोग तो इसे क्या कहते हैं? मैं ही जानता हूँ, मैं ही देख रहा हूँ' ऐसा लगता है लेकिन आप क्या कहते हो? 'यह बुद्धि देख रही है' ऐसा लगता है। नहीं तो लोग तो ऐसा ही कहते हैं कि 'मुझे यह दिख रहा है' और वह 'मैं देख रहा हूँ' वही भ्रांति है।