________________ 494 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : ना, पता नहीं चल सकता। प्रश्नकर्ता : ज्ञान से पहले भी वह जो कुछ भी जानता है, वह आत्मा के गुणों से जानता है न, अगर जाने तो? दादाश्री : नहीं। वह तो भरे हुए पावर से जानता है। प्रश्नकर्ता : अब ज्ञान लेने के बाद जब-जब ज्ञेय सामने आते हैं, तब हर एक चीज़ को जानने में हमें उसका अनुभव होता है। आत्मा का वह अनुभव होना चाहिए। ऐसा ही हुआ न, जो हो रहा है वह? दादाश्री : नहीं, देखना और जानना होता रहता है। प्रश्नकर्ता : हाँ, अर्थात् उसे हमारा आत्मा ही देख रहा है, ऐसा समझना है न? दादाश्री : हाँ, ज्ञाता-दृष्टा और ज्ञायक। ज्ञायक भाव अर्थात् आत्मा को कुछ बोलने की ज़रूरत ही नहीं रहती। पहले ज्ञायक भाव था ही नहीं न! मिश्रभाव था। उसमें कर्तापना और जानपना 'मैं करता हूँ और मैं जानता हूँ', उसका मिक्सचर था। प्रश्नकर्ता : अब प्योर जानपना हो गया है। दादाश्री : हाँ, प्योर जानपना। प्रश्नकर्ता : अर्थात् यह जो बार-बार जानपने का अनुभव आता है वह आत्मा का ही अनुभव आया न? दादाश्री : सबकुछ आत्मा का ही है लेकिन उसमें जो बाहर का ज्ञान दिखाता है, वह पावर चेतन (मिश्रचेतन) दिखाता है। प्रश्नकर्ता : दादा, तो फिर मूल आत्मा की जो देखने-जानने की क्रिया है और मिश्रचेतन की जो देखने-जानने की क्रिया है, इनमें क्या फर्क दादाश्री : मिश्रचेतन विनाशी को देख सकता है। सिर्फ विनाशी को