________________ 492 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : रहता ही है सभी के लक्ष में, शब्द शायद समझ में न आया हो लेकिन यों तो उसके लक्ष में रहता ही है। आत्मरमणता, स्व-रमणता सभी कुछ वही का वही है। स्व-रमणता अर्थात् उस पुद्गल को ही देखता रहता है। प्रश्नकर्ता : आपको तो ऐसा ही रहता होगा न, दादा? दादाश्री : हमारा थोड़ा कच्चा रह जाता है। आप जो यह बात कह रहे हो न, वह पर-रमणता में कह रहे हो। पूरे दिन पर-रमणता में ही रहते हो आप। स्व-रमणता में, निश्चय से स्व-रमणता में, बाकी आपका निश्चय व्यवहार में ही बरतता है। ऐसा ही है फिर भी यह तो बहुत ऊँचा पद कहलाता है! भगवान महावीर तो बस, सिर्फ खुद का ही पुद्गल देखते रहते थे क्योंकि उसमें छः जो द्रव्य हैं, वे तो उन्हें दिखते ही रहते थे, निरंतर / एक पुदगल में ही दृष्टि रखते थे। एक ही पुद्गल, और कुछ नहीं। जो एक पुद्गल का स्वभाव है, वही सर्व पुद्गल का स्वभाव है। स्वभाव सिर्फ एक तरह का है। अतः भगवान का तरीका मैंने आपको दे दिया है। उस तरीके से चलो अब।