________________ 488 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : फिर जो इस पुद्गल में घुस गए, उनका तो फिर पता ही नहीं चला, निकले ही नहीं। प्रश्नकर्ता : वह सब समझने के लिए और जानने के लिए है? दादाश्री : नहीं, उसे समझने के लिए यदि गहराई में उतरे न, उसमें घुस गए न तो फिर उसके बाद मिले नहीं है। महावीर भगवान क्या कहते थे कि इसके बजाय तो सिर्फ एक पुद्गल! कोई भाग ही नहीं, विभाजन ही नहीं। प्रश्नकर्ता : सारा एक ही पुद्गल। दादाश्री : हाँ, एक ही पुद्गल। अनंत प्रकार की अवस्थाएँ हैं लेकिन सारा पुद्गल एक ही है। विनाशी स्वभाव का है। अत: महावीर भगवान सिर्फ एक ही पुद्गल को देखते रहते थे। अन्य कोई झंझट में नहीं पड़ते थे। ऐसे दखल नहीं करते थे। हम भी कोई दखल नहीं करते हैं न? तुझे समझना हो तो गहरे उतरकर समझाते हैं लेकिन उससे तुझे बहुत नुकसान होगा। अब बहुत गहरे मत उतरना। और वापस पूछता जा रहा है, 'ऐसा पुद्गल!' तो न जाने कहाँ गुफा में घुस जाएगा! अंत में यही एक ध्येय प्रश्नकर्ता : हम प्रयत्न करते हैं लेकिन थोड़ी देर तक रहता है लेकिन फिर हट जाता है। दादाश्री : आपका बाहर का अभ्यास अधिक है न! लोगों को जुदापन का बिल्कुल भी अभ्यास नहीं है न! कोई पुद्गल की ऐसी-वैसी चीज़ हो, उस पर हम उपयोग रखकर निरीक्षण कर रहे हों तो खयाल में रहेगा न, उस प्रकार से खुद के पुद्गल को देखना है। प्रश्नकर्ता : अर्थात् खुद के एक ही पुद्गल से बाहर अन्य कोई दखलंदाजी नहीं? दादाश्री : और क्या? एक पुद्गल को देख पाए तो बहुत हो गया।