________________ 486 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) शरीर में सिर्फ पुद्गल को ही देखते हैं, और कुछ नहीं देखते। विशेषण नहीं देते, ऐसा कहना चाहते हैं। प्रश्नकर्ता : एक ही पुद्गल देखते हैं अर्थात् आप ऐसा कहना चाहते हैं कि पूरण-गलन ही देखते रहते हैं? दादाश्री : एक ही पुद्गल, अन्य कुछ विशेष नहीं। इन सब को जो मानो वे सब एक पुद्गल ही हैं और कुछ है ही नहीं यह। यानी कि 'ये सारे ज्ञेय पुद्गल रूपी ही हैं, अत: मैं इन्हें कोई विशेषण नहीं देना चाहता।' ये हिसाब जो पूरण किए हुए हैं, इन सब का गलन होगा, ये सब गाढ़ हैं। एक ही पुद्गल; फिर गाय हो या भैंस हो। प्रश्नकर्ता : मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार, वे सब पुद्गल में आ गए? मन-बुद्धि-चित्त कहें तो वह सब पुद्गल में आ गया? दादाश्री : पुद्गल में हर एक चीज़ आ गई। अहंकार-वहंकार वगैरह सभी कुछ। पूरा जगत् पुद्गल में ही आ जाता है। जो कुछ भी इन्द्रियों से दिखाई देता है, वह सारा। प्रश्नकर्ता : अपने पुद्गल में या सामनेवाले के पुद्गल में जो कुछ भी होता है, वह पूरण-गलन ही है। दादाश्री : आत्मा के अलावा बाकी सभी कुछ पुद्गल है। उसे फिर हमने बहुत लंबा खींचा। लोग कहते हैं, 'कुछ ज़्यादा बताइए।' तब मैंने कहा, 'शौचालय, भोजनालय और पूरण-गलन व शुद्धात्मा। ये जो सभी सामान लाते हैं, वह भोजनालय है और ये जो संडास वगैरह में जाते हैं, ये सब बीड़ियाँ फेंक देते हैं, वे सभी शौचालय हैं। पूरण-गलन और शुद्धात्मा, अन्य कुछ है ही नहीं। लोगों ने बुद्धि से उसी के विभाजन किए। 'यह तो सोना है, चाँदी है, यह सीसा है, लोहा है।' बुद्धि की कसौटी से सब विभाग किए। प्रश्नकर्ता : चाहे कुछ भी हो लेकिन फिर भी पुद्गल ही है? दादाश्री : पुद्गल ही है। यह सारा ही पुद्गल है।