________________ 484 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) प्रश्नकर्ता : लेकिन पहले चंदूभाई को देख नहीं पाता था न! दादाश्री : पहले तो देख ही नहीं सकता था। जब तक सम्यक्त्व दृष्टि न खुले तब तक सबकुछ उल्टा ही देखता है न! तब तक पूरण भी करता है और गलन भी करता है, दोनों करता है जबकि इसमें यह सिर्फ गलन ही करता है। और कुछ नहीं करता। अभी कोई बैठा-बैठा बाहर सिगरेट पी रहा हो तो किसी के मन में ऐसा होता है कि यह क्या? बुद्धिवाले सब चौंक जाते हैं। 'अरे भाई, उसने पूरण किया है उसका गलन करने दे न बेचारे को!' क्रमिक मार्ग में सम्यक्त्व होने के बाद इसी बात की उलझन रहती है। तरह तरह की उलझनें! बुद्धि है न! अंत तक बुद्धि से नापता रहता है। यह थोड़ा बहुत हिल जाते हो या नहीं रास्ते में? थोड़ा बहुत ऐसा होता है न कि ऐसा है या वैसा है? प्रश्नकर्ता : नहीं, नहीं लगता। दादाश्री : तो ठीक है। कहे तो भी परेशानी नहीं है न हमें! अच्छा-बुरा, दोनों ही पुद्गल इस पुद्गल के दो भाग हैं। यह अच्छा है और यह बुरा,यह नफा है और यह नुकसान, इस प्रकार से दो भाग हैं, क्रमिक ऐसा कहता है। जबकि यह अक्रम कहता है कि एक ही पुद्गल है, और कुछ है ही नहीं। एक पुद्गल ही है इसलिए फिर चाहे अच्छा हो या बुरा हो, भगवान को कोई परेशानी नहीं है। अच्छा-बुरा तो समाज व्यवस्था के लिए है। नफानुकसान किस आधार पर है? व्यवहार के हिसाब से ही है न! बाकी सारा एक ही पुद्गल है। अच्छा-बुरा नहीं है। अच्छा देखने पर राग होता है, बुरा देखने पर द्वेष होता है। है एक ही पुद्गल। वह तो लोगों ने इसका विभाजन किया है भ्रांति से। सब पुद्गल की बाज़ी है। पुद्गल की ही बाज़ी है। यह धान का तिनका (चारा) होता है तो वह लंबा हो या छोटा लेकिन है तो धान का तिनका ही न! कागज़वाले क्या कहते हैं कि इसे अगर गाय-भैस नहीं खा रहे हैं, तो वह धान का तिनका हमें चलेगा। कागज़ बनाने के लिए हमें यह भी चलेगा और वह भी चलेगा।