________________ 482 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : यह अच्छा-बुरा तो जैसी दृष्टि से हम समझे थे, वैसी बन चुकी है। इसलिए यह बन चुकी दृष्टि ही ऐसा करवाती है। बाकी, एक ही पुद्गल है, सही-गलत होता ही नहीं है। सही-गलत समाज में है और वह भी फिर सापेक्षता है। अभी कोई हिंदू बहुत भूखा हो, तीन दिन से और अगर मांसाहारवाली थाली दें तो कहेंगे, 'नहीं भाई, हम भले कितने ही भूखे हों लेकिन हमें आमिष नहीं चाहिए' जबकि अन्य कोई खुश होकर ले लेंगे। अतः इस प्रकार से है सब। अब हमें मांसाहार का विचार आए तो मन में घिन आ जाती है। अब इसमें सही-गलत नहीं है। वहाँ पर मेरा कहना क्या है कि वहाँ आमिष कहो या निरामिष कहो, सबकुछ पुद्गल ही है। पुद्गल अर्थात् जो पूरण किया हुआ था वही गलन हो रहा है अभी, अभी गलन हो रहा है। गलन होते समय दिखता है, पूरण करते समय क्या नहीं दिख रहा था? तब कहते हैं, दिखा था लेकिन उसका भान नहीं है। गलन होते समय अब दिखाई देता है। और जब नया पूरण नहीं होता, तब वहाँ पर स्टॉप आ जाता है। नया पूरण कब नहीं होता? तो वह तब कि जब प्रवृति में निवृत्ति रहे, तब नया पूरण नहीं होता। अर्थात् आप प्रवृति करते हो उसके बावजूद भी आपको कर्म बंधन नहीं होता, उसी को निवृत्ति कहते हैं। इस संसार से निवृत्ति के बारे में तो, इस बाहरी स्थूल स्वभाव से लोगों को समझ में आता है। जब तक इस काम में था, तब तक वह बैल घानी में चक्कर लगा रहा था। अब चक्कर नहीं लगा रहा। सम्यक्त्व के बाद मात्र गलन ही जगत् के लोगों में जो पूरण और गलन दोनों होते हैं, वे मोह कहलाते हैं, लेकिन सिर्फ अगर गलन ही हो और पूरण नहीं हो तो वह है चारित्रमोह। लोगों को ऐसा लगता है कि यह मोह है लेकिन हम ऐसा जानते हैं कि फाइल का निकाल हो रहा है। क्या दिखाई देता है आपको? हम भी इसे यों पुद्गल कहते हैं। एक लाख लोग आगे-पीछे घूमते रहते थे लेकिन महावीर भगवान सिर्फ एक पुद्गल को ही देखते रहते थे क्योंकि जो पूरण किया हुआ है, वही गलन हो रहा है। यानी समकिती जीवों में वह एक ही कार्य हो रहा है। लेकिन