________________ 480 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) देखना चाहिए। दोनों ज्ञान एक साथ रहने चाहिए। और अपना ज्ञान सभी को ऐसा रख सकता है। प्रश्नकर्ता : आपने दृष्टि दी है न, दादा। दादाश्री : हाँ। प्रश्नकर्ता : यदि दृष्टि नहीं दी होती न तो ये सारी बातें सिर्फ शब्दों में ही रहतीं। दादाश्री : ये पाँच आज्ञाएँ दी हैं न, इनमें सभी कुछ आ जाता है! पढ़ता रह खुद की ही किताब प्रश्नकर्ता : दादा ने कहा है, 'तेरी ही किताब पढ़ता रह, अन्य कोई किताब पढ़ने जैसी नहीं है। यह खुद की ही जो पुद्गल किताब है, यह मन-वचन-काया की, उसी को पढ़, अन्य कुछ पढ़ने जैसा नहीं है!' दादाश्री : इसे पढ़ना आसान नहीं है भाई! 'वीर' का काम है। आसान होने के बावजूद भी आसान नहीं है। मुश्किल होने के बावजूद भी आसान है। हम निरंतर इस ज्ञान में रहते हैं लेकिन फिर भी महावीर भगवान की तरह नहीं रह पाते। वैसे तो 'वीर' ही रह सकते हैं! हमारी तो चार अंश की कमी हैं ! इतना भी नहीं चल सकता न वहाँ पर! लेकिन दृष्टि वहीं की वहीं रहती है। तीर्थंकर भगवान निरंतर खुद के ज्ञान में ही रहते थे। ज्ञानमय परिणाम ही थे। ज्ञान में कैसे रहते होंगे? ऐसा कौन सा ज्ञान उन्हें होना बाकी है कि उन्हें उसमें रहना पड़े? जो केवलज्ञान की सत्ता पर बैठे हुए पुरुष हैं तो कौन सा ज्ञान बाकी है कि जिसमें उन्हें रहना हो, तो वह है खुद के एक पुद्गल में ही दृष्टि रखकर उसी को देखते रहते हैं। भगवान महावीर देखते ही रहते थे कि क्या कर रहे हैं और क्या नहीं? देवताओं ने जब खटमल का उपद्रव किया, तब इधर-उधर करवट बदलते रहे। उसे वे खुद देखते थे। 'महावीर' ऐसे करवट बदलते रहे, शरीर का