________________ [6] एक पुद्गल को देखना 479 प्रश्नकर्ता : तो किसी को शाबाशी देनी चाहिए या नहीं देनी चाहिए? दादाश्री : दें या नहीं दें, वह चंदूभाई देते हैं न! आपको कहाँ देनी है? आपको नहीं देनी है। चंदूभाई दें उसे देखना है, नहीं दे उसे भी देखना है। चंदूभाई क्या करते हैं, उसे हमें देखते रहना है। भगवान महावीर परे दिन एक ही काम करते थे, एक ही पुद्गल को देखते रहते थे, कहाँ-कहाँ अंदर परिवर्तन होता है, अन्य क्या स्पंदन हो रहा है, वही सब देखते रहते थे अंदर। आँख की पलकें फड़फड़ाएँ तो उन्हें भी देखते रहते थे। अब भगवान महावीर जो यह सब देखते थे न, वह लोग देखते हैं न, उससे कुछ अलग देखते थे। लोग तो इन्द्रिय दृष्टि से देखते हैं और भगवान अतीन्द्रिय दृष्टि से देखते थे। जो इन्द्रिय दृष्टिवाले को नहीं दिखता है, वह सारा भाग भगवान को दिखता था। प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, यों देखते रहने की जो यह बात हम कहते हैं लेकिन वास्तव में तो सबसे बड़ा पुरुषार्थ तो वही हुआ न। ज्ञाता-दृष्टा में रहना और पुद्गल को देखते रहना। दादाश्री : वही अंतिम पुरुषार्थ। भगवान महावीर करते थे वह। एक आचार्य महाराज ने पूछा कि 'भगवान, आप ये सब क्या देखते रहते हैं?' तो भगवान ने कहा, 'मैं तो पुद्गल को ही देखता रहता हूँ। बाकी सब तो इन आँखों से दिखता ही है। उसे देखना नहीं कहते।' मैंने तो आपको रास्ता दिखाया है 'देखने' का, क्योंकि अभी आपको ठीक से पुद्गल को देखना नहीं आएगा। अतः मैंने क्या कहा है कि रियल और रिलेटिव देखो, बाहर हर एक का रिलेटिव दिखेगा। उसके अंदर रियल देखो तो तीन घंटे इस तरह से देखते जाओगे न तो इतनी सुंदर समाधि रहेगी। तीन घंटे नहीं, एक ही घंटे अगर देखोगे तो भी पुणिया श्रावक जैसी समाधि रहेगी। और जब औरों के साथ व्यवहार करो न, कोई गालियाँ दे रहा हो तो वह गाली देनेवाले के रूप में दिखना ही नहीं चाहिए। शुद्धात्मा देखना चाहिए। कौन गाली दे रहा है वह देखना चाहिए और वह कौन है, उसे भी