________________ 478 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) 'यह मैं खुद ही हूँ' तो फिर देखने को रहा ही कहाँ!' यह तो खुद जुदा हुआ इसलिए देख सकता है। देखनेवाला जुदा हो गया ! ___ अतः अंतिम ज्ञाता-दृष्टा तो, चंदूभाई ही आ-जा रहे हों तो आपको ऐसा दिखे कि 'ओहोहो, आइए चंदूभाई, आइए चंदूभाई।' चंदूभाई बात कर रहे हों तो भी आपको जुदा दिखें।। देखने से होती है शुद्धि प्रश्नकर्ता : आप शुद्धात्मा के रूप में रहकर अपने अहंकार-मन और बुद्धि को देखते रहते हैं और फिर आपने कहा है कि उन्हें शुद्ध किए बगैर आपका छुटकारा नहीं हो सकता। तो फिर जिस घड़ी उन्हें शुद्धात्मा पद प्राप्त हुआ, तो वे यों ही शुद्ध नहीं हो जाएँगे? दादाश्री : वह तो अगर हमारी आज्ञा का पालन करोगे तब देख सकोगे। वे देखने से शुद्ध हो जाएंगे। उन्हें अशुद्ध देखा, अशुद्ध कल्पना की इसलिए बंध गए। उन्हें शुद्ध देखा तो फिर मुक्त हो गए। प्रश्नकर्ता : सिर्फ उसे देखते रहने से ही वह प्रकिया शुरू हो जाती है? दादाश्री : हाँ, चंदूभाई क्या कर रहे हैं, वह आपको देखते रहना है। चंदूभाई की बुद्धि क्या कर रही है, चंदूभाई का मन क्या कर रहा है, उसे देखते रहना है। और फिर आपको घबराना नहीं है, घबराएँगे तो लोग। चंदूभाई को आप जानते हो कि 'इस भाई का स्वभाव शुरू से ही ऐसा है।' इसे सीधा करने जाएँ तो न जाने कितने ही जन्म बिगड़ जाएँ! माल अच्छा हो तो भी फेंक देना है और खराब माल हो तो भी फेंक देना है। फेंक ही देना है न! यानी स्वभाव में आ गए, फिर क्या? अतः देखते रहना है। माल जो भी है, उसकी कीमत नहीं है, नो वैल्यू। आत्मा प्राप्त करने के बाद फिर पुद्गल की किसी भी तरह की वैल्यू नहीं है। जो बहुत अक्लमंद था, वह अक्लमंद बल्कि और भी ज्यादा परेशान हुआ। ज़रूरत से ज़्यादा अक्लमंद तो मार ही खाता रहता है, ऐसा है यह जगत् !