________________ 476 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) अतः हमें कहना है कि जब आत्मा पुद्गल का संपूर्ण नाच देखे तब समझना कि फुल स्टॉप आ गया है। किसी भी नाच में रस (रुचि) न ले तो संपूर्ण (स्थिति) आ गई / रुचि नहीं लेनी चाहिए। रुचि कब नहीं लेगा कि जब खुद पूर्ण स्वरूप होगा तभी। तो आपको वह पूर्ण स्वरूप दिया है, रुचि न लें ऐसा ही दिया है। और अधूरा स्वरूप रुचि लेता है। इसका त्याग करना पड़ेगा, ऐसा करना पड़ेगा। दखल है उसकी। कब त्याग नहीं किया था? कौन से जन्म में त्याग नहीं किया? और वापस फिर वही का वही ग्रहण करता है। ये जो साधु बनते हैं न, वे इस जन्म में साधु बनते हैं, फिर जब बुढ़ापा आने लगता है तब परेशान हो जाता है अरे इसमें.... इसके बजाय तो संसारी रहना ही अच्छा था। अतः दो चीजें रखनी चाहिए, या तो वर्तमान में बरते, या फिर खुद के पुद्गल को खुद देखे। मैंने आपका आत्मा इतना अधिक शुद्ध कर दिया है कि आप हर प्रकार से खुद के पुद्गल को देख सकते हो।। देखते-देखते खुद का उजाला है न, वह बढ़ जाता है और सुख भी बढ़ता जाता है। सुख नहीं बढ़ा है? तो कहते हैं, सुख तो बहुत बढ़ा है। तो फिर भाई इसमें हर्ज क्या है? ये सब शिकायतें तो पुद्गल की तरफ की हैं। लेकिन पुद्गलपक्ष अपना है ही नहीं, फिर कब तक उसके साथ दोस्ती रखें? पुद्गल से फ्रेन्डशिप इतनी मार पड़वाती है तो कब तक रखें? धीरेधीरे इसे हल्का नहीं किया जा सकता? मित्रता कम नहीं की जा सकती? अपना कोई मित्र हो और वह बहुत दगाबाज़ी करे तो फिर? धीरे-धीरे मित्रता कम कर देते हैं। उसी तरह इसमें भी कम कर देना है। ___ पहले देखो फिर जानो प्रश्नकर्ता : आपने आप्तवाणी में कहा है कि आप जानते हो लेकिन देखते नहीं हो,' वह क्या है? दादाश्री : चंदूभाई, क्या कर रहे हैं, चाय पी, खाया-पीया, यह सब देखो। यह तो सिर्फ जानता है लेकिन देखता नहीं है न! पुद्गल को निरंतर देखते ही रहना चाहिए। पहला फर्ज़ यही है, जानने का फर्ज बाद में हैं।