________________ 474 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) कहने (बताने) का भावार्थ भी इतना ही है कि(ज्ञानीपुरुष के पास रहने से) सहज होता जाता है! प्रश्नकर्ता : अक्रम विज्ञान जो है, वह सहज योग से कुछ अलग है क्या? दादाश्री : सहज योग ही है यह। पूर्ण विज्ञान है यह। सहज योग अर्थात् असहज नहीं। यह पूरी दुनिया तो कल्पित है और यह सहज है। अक्रम विज्ञान, वह पूर्ण विज्ञान है। यह पूर्ण विज्ञान अर्थात् जब तक अधूरा है, तब तक असहज, पूर्ण हुआ तो सहज हो जाता है। प्रश्नकर्ता : मैं ऐसा मानता हूँ कि यह जो अक्रम विज्ञान है तो जो रेग्यूलर योग है, यम-नियम-आसन-धारण-ध्यान-समाधि उन सब की कोई ज़रूरत नहीं पड़ती? दादाश्री : उसकी ज़रूरत ही नहीं है न! अष्टांग योग की पूर्णाहुति हो जाए तब जाकर यह पद प्राप्त होता है। इससे पूर्णाहुति हो जाती है! तभी सहज हो सकता है न, नहीं तो सहज नहीं हो पाएगा न! अष्टांग योग वह मुख्य मार्ग है और यह (अक्रम विज्ञान) तो कभी-कभी, अपवाद रास्ता है। शायद ही कभी यह उत्पन्न होता है। बाकी मूल मार्ग अष्टांग योग वाला है, यह तो अपवाद है। हमेशा के लिए नहीं रहता है यह मार्ग। अपवाद में जितनों को दिशा मिल गई, उतने लोगों का काम हो गया।