________________ 472 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : छोड़ देना है, शब्दों नहीं तोलने हैं इसमें। यह तो हमें अंदर समझ जाना है कि 'इससे कब छूटें!' खुद को अहितकारी लगे तो तुरंत छोड़ दे। देखो न, शादी के लिए मना कर देता है साफ-साफ। प्रश्नकर्ता : ऐसा सभी बातों में पता चलना चाहिए न कि यह चीज़ अहितकारी है। दादाश्री : जब सब में ऐसा लगेगा तब कुछ हो पाएगा न! दूसरी चीज़ों में इन्टरेस्ट है अभी तो। तुम्हें शादी में इन्टरेस्ट नहीं है तो साफ-साफ कह देते हो कि नहीं है मेरा।' बाहर के संयोग आएँ तो भी फेंक देते हो। ऐसा सभी में होना चाहिए न! प्रश्नकर्ता : या फिर जो मुक्त ही है, उसे जब ऐसा अंदर पूरी तरह से यह तय हो जाए कि 'यह चीज़ मेरी नहीं है' और अगर कोई खींच ले जाएँ तब भी ऐसा लगना चाहिए कि 'मैं इससे अलग ही हूँ न!' दादाश्री : हाँ, ऐसा सब होना चाहिए, तो हर्ज नहीं है। भरत राजा को ऐसा था कि कोई पूरा राज्य ले ले, रानियाँ उठाकर ले जाए फिर भी हँसें, ऐसे थे या फिर वह सब होना ही नहीं चाहिए। परिग्रह होने के बावजूद भी संपूर्ण अपरिग्रही होना चाहिए। हमारा ऐसा ही है, सभी परिग्रह होने के बावजूद संपूर्ण अपरिग्रही! प्रश्नकर्ता : परिग्रही होने के बावजूद भी संपूर्ण अपरिग्रही, तो इसमें चीज़ और खुद, इनके बीच ऐसा क्या कनेक्शन रखा? उन्हें किस तरह से अलग किया? दादाश्री : अलग नहीं किया है, “अपरिग्रहवाला ही हूँ 'मैं।" प्रश्नकर्ता : लेकिन ऐसा किस तरह से? क्योंकि अभी के सभी संयोग ऐसे हैं कि एक भी चीज़ हटाने से हट सके, ऐसी है नहीं। भावना में होता है लेकिन पहला रास्ता यह है कि उस चीज़ से अलग हो जाना है। दादाश्री : 'आइ' विदाउट 'माइ' इज़ गॉड! यह सारी परेशानी ‘माइ' की वजह से हैं।