________________ 468 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) दादाश्री : हाँ, जिसे आवश्यक कहा जाता है। आवश्यक अर्थात् जिसके बिना चले नहीं। न खाएँ तो क्या होगा? मनुष्यपना बेकार चला जाएगा। क्या होगा? यानी कि ऐसा कुछ नहीं है कि अभी तू परांठे और पूरणपूरी (गुजराती व्यंजन) वगैरह सब खा। खिचड़ी या दाल-चावल जो कुछ भी हो, लेकिन आवश्यक, सिर्फ उसी के लिए हमें परवश रहना था।' किसके लिए? आवश्यक। प्रश्नकर्ता : हाँ ठीक है। दादाश्री : अब, खाया तो क्या सिर्फ खाने से ही चलता है? फिर उसका परिणाम आता है, रिज़ल्ट तो आता है या नहीं आता, जो भी करते हो उसका? अब आवश्यक को कम किया जा सके, ऐसा है भी नहीं। कोई कहेगा, कि 'मुझे कम करने ही हैं लेकिन हो नहीं रहे हैं।' बेटे की पत्नी शोर मचाती है। घर में पत्नी किच-किच करती रहती है लेकिन अगर मन में ऐसा भाव हो कि 'मुझे कम करने हैं, ' इतना भाव हो जाए तो भी बहुत हो गया। अनावश्यक जितना अधिक है, उतनी ही अधिक परेशानी। आवश्यक भी परेशानी है, फिर भी उसे परेशानी नहीं माना जाता। उसकी ज़रूरत है, इसलिए। लेकिन सारा अनावश्यक तो परेशानी है। हर एक चीज़, वे सब जो आवश्यक है, वह सोचे बगैर सहज ही हो जाना चाहिए। अपने आप ही होना चाहिए। पेशाब करने का इंतज़ार नहीं करना पड़ता। अपने आप ही आ जाती है और उसमें जगह भी नहीं देखता। और इन्हें तो, इन बुद्धिशालियों को तो जगह भी देखनी पड़ती है। जबकि सहज तो जहाँ पेशाब करना पड़े, वहीं पर हो जाती है, इन सब को आवश्यक कहते हैं। प्रश्नकर्ता : यह तो एकदम अंतिम दशा की बात हुई न? दादाश्री : अंतिम ही न! नहीं तो फिर और कौन सी? अंतिम दशा