________________ [5] आत्मा और प्रकृति की सहजता से पूर्णत्व 467 दादाश्री : एक का अनादार नहीं और दूसरे का आदर नहीं वह सहज। जो आ मिले उसका नाम सहज। फिर भले ही कहे, 'भाई, तला हुआ है, तला हुआ है, तकलीफ देगा!' अरे, तला हुआ तो विकृत बुद्धिवाले को तकलीफ देता है। सहज को कोई तकलीफ नहीं देता। जो आया है वह खा। आया हुआ दुःख भुगत, आया हुआ सुख भोग। ज्ञानी के लिए सुख-दुःख होता ही नहीं है न! लेकिन जो आ पड़े, वही। और अगर कड़वा लगे तो रहने देते हो? प्रश्नकर्ता : नहीं, निकाल देते हैं। दादाश्री : उससे चेहरा कैसा हो जाता है, वैसे होने देना है। हमें दखलंदाजी नहीं करनी है, उसे सहज कहते हैं। यह पूरा मार्ग सहज का है। प्रश्नकर्ता : 'सहज मिला सो दूध बराबर,' ऐसा कहते हैं तो अगर सहज की प्राप्ति प्रारब्ध के अधीन है तो पुरुषार्थ में क्या फर्क? दादाश्री : सहज की प्राप्ति प्रारब्ध के अधीन नहीं है। वह ज्ञान के अधीन है। अगर अज्ञान हो तो असहज होता है और ज्ञान हो तो सहज होता जाता है। अगर अज्ञान हो तो असहज है न पूरी ही दुनिया। यह तो अक्रम विज्ञान है, क्रम-व्रम कुछ भी नहीं। करना कुछ भी नहीं है। जहाँ पर किया जाता है, वहाँ पर आत्मा नहीं है। करे, वहाँ पर संसार है और जहाँ सहज है, वहाँ आत्मा है ! अप्रयास रूप से विचरे, वह अंतिम दशा यह जंजाल में फँसता है, रोज़-रोज़ और अधिक फँसता जाता है। घर में बगीचा नहीं था तो वह लोगों का बगीचा देखकर बगीचा बनाता है। फिर वहाँ पर खोदता रहता है, खाद लेकर आता है, फिर पानी डालता रहता है। बल्कि यह जंजाल बढ़ाता-बढ़ाता और बढ़ाता ही जाता है। कितना जंजाल रखने जैसा था? प्रश्नकर्ता : खाने-पीने जितना।