________________ 466 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) जैसा है ही नहीं। एक ही महीना सहज रहें तो बहुत हो गया। प्रश्नकर्ता : एक दिन सहज किस प्रकार से रहा जा सकता है? एक दिन अगर सहज रूप से बिताना हो तो किस प्रकार से? उसका वर्तन कैसा होना चाहिए? दादाश्री : वर्तन? सहज प्राप्त संयोग, जो बाहर और अंदर मन के और बुद्धि के संयोगों से परे हैं, तब सहज प्राप्त होता है। अंदर मन वगैरह जो सब शोर मचाते हैं, उन सभी से दूर रहकर, खुद इन सब को देखे और जाने। और बाहर सहज प्राप्त संयोग। दो बजे तक खाना न मिले तो भी कुछ कह नहीं सकते। तीन बजे, साढ़े तीन बजे आए तो उस समय, जिस समय दें तब..... प्रश्नकर्ता : इस संसार की जो ज़िम्मेदारियाँ निभानी हैं, उनमें सहज किस तरह से रहा जा सकता है? दादाश्री : नहीं रहा जा सकता। वह सहज योग तो शायद ही कोई, अरबों में कोई एकाध इंसान कर सकता है, शायद ही कभी! सहज तो, वे सब बातें करने जैसी नहीं हैं। उसके बजाय कोई दिया प्रकट हुआ हो उनसे, ज्ञानी से कहें, 'साहब, मेरा दिया प्रकट कर दीजिए।' तो वे प्रकट कर देंगे। झंझट ही खत्म हो गया। दिया प्रकट करने से मतलब है न हमें तो! उस ज्ञान मार्ग पर सहज रहा जा सकेगा। हम तो निरंतर सहज ही रहते हैं, निरंतर सहज! ___ सहजता में जो मिले वो भले ही, खीर-पूड़ी और मालपुए वगैरह, कहते हैं, 'जितना खा सको, उतना खाओ और फिर जब रोटी और सब्जी मिले तो वे भी खा। मालपुए और खीर का आदर मत करना और रोटी को हटाना मत।' अब एक का आदर करे और दूसरे का अनादर करे, तो ऐसा धंधा ही क्यों? प्रश्नकर्ता : दादा, सहज होना है, सहज होना है, ऐसा सब पढ़ा बहुत था लेकिन सहज किस तरह से हुआ जा सकता है, वह आपने यह जो कहा न, कि 'यदि खीर मिले तो खा, रोटी मिले तो खा,' आपकी उस बात पर से फिर यह चीज़ कि सहज किस तरह से होना, वह समझ में आ जाती है।