________________ 464 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) प्रश्नकर्ता : हाँ, तो नौकरी के लिए जाना पड़ता है, उसे? दादाश्री : नहीं। नौकरी करना, वह आवश्यक व्यवहार नहीं है। वह है ही नहीं, नौकरी करना है ही नहीं। नौकरी, व्यापार या खेती-बाड़ी करना ज़रूरी है, ऐसा है ही नहीं! प्रश्नकर्ता : तो फिर वह ऐसी चीज़ हुई न कि जिसे छोड़ देना है? दादाश्री : उसमें तो सुख है ही नहीं न ! जिन्हें आगे की दशा प्राप्त करनी हैं, उनके लिए यह है ही नहीं। जो समभाव से निकाल करता होगा, उसके लिए वह चलेगा। प्रश्नकर्ता : ऐसे आत्म जागृति का उत्पन्न होना और व्यवहार करना, खुद की सारी शक्तियाँ व्यर्थ खर्च करके व्यवहार करने जैसा हो जाता है। दादा से ज्ञान की समझ प्राप्त करना और वहाँ जाकर सभी शक्तियाँ व्यर्थ खर्च कर देना, उसके जैसा हो जाता है यह तो। दादाश्री : ऐसा है न कि यह भोजन करना शरीर के लिए आवश्यक है न, नेसेसिटी। उसके बिना शरीर गिर जाएगा, मर जाएगा। उतने तक ही व्यवहार है और उसके लिए भी भगवान ने कहा है कि एक ही बार खाना। उससे कहीं मर नहीं जाओगे। और वह भी भिक्षा लेकर खाना। उसमें पीड़ा नहीं है अपने को बर्तन वगैरह लाने की। कपड़े भी माँगकर ले लेना। फिर पूरे दिन आत्मा का करते रहना, उपयोग में रहना। प्रश्नकर्ता : उदय स्वरूप से ऐसा रहा करे और खुद उपयोग में रहे। दादाश्री : हाँ। अगर पूरे दिन उपयोग में रहे न तो फिर कोई झंझट ही नहीं। उसमें पीड़ा नहीं है। प्रश्नकर्ता : अब जिसे पूर्ण कर लेना है, उसकी दशा अपरिग्रही होनी चाहिए, अभी का पूरा व्यवहार खड़ा है, उसका निकाल किस तरह करें? उसमें किस तरह अपरिग्रही दशा लाएँ? दादाश्री : वह तो तुझे ही तेरा खुद का पता चल जाएगा। हमें फाइलों का निकाल करना है न?