________________ 462 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) प्रश्नकर्ता : आत्मा का जो ऐश्वर्य है, वह क्या सहजपने में से प्रकट होता होगा? दादाश्री : सहज में ही, जितना सहज होता जाएगा, उतना ऐश्वर्य प्रकट होता जाएगा। अब सहज तो फॉरेनवाले भी रहते हैं। अपने यहाँ पर बच्चे भी सहज हैं लेकिन वह अज्ञान सहजता है। अगर ज्ञानपूर्वक ऐसी सहजता रहेगी तो हो सकेगा। प्रश्नकर्ता : यह लौकिक ऐश्वर्य होता है, उससे भी कभी न कभी थकान महसूस होती है! दादाश्री : निरी थकान ही होती है। उस ऐश्वर्य से थकान ही महसूस होती है। मेरे पास इतने बीघा जमीन है, मेरे इतने बंगले हैं, सारा वज़न सिर पर आता है। जितना ‘मेरा' बोलते हैं न, उतना सिर पर आता है। हाँ, बोलने के बाद क्या होता है? सिर पर आने के बाद, घबराहट होती है उसे, बाद में उसे छोड़ना नहीं आता न! 'नहीं है मेरा, नहीं है मेरा,' बोलने से छूट जाता है, लेकिन वैसा करना आता नहीं है न! क्रिया से नहीं बल्कि उसमें चंचलता से कर्म बंधन यह जो क्रिया हो रही है उसमें हर्ज नहीं है लेकिन उससे चंचलता उत्पन्न होती है, वह परेशानी है। क्रिया बंद नहीं करनी है। बंद होगी ही नहीं। उसमें जो चंचलता उत्पन्न होती है, जो सहजता टूट जाती है, उससे कर्म बंधन है। सहजता टूट गई तो कर्म बंध गए। ये क्रियाएँ करने में हर्ज नहीं है, किसी भी क्रिया से हर्ज नहीं है, अभिमान करे तो भी हर्ज नहीं है लेकिन चंचलता नहीं होनी चाहिए। प्रश्नकर्ता : वह क्या है जिसे चंचलता कहते हैं? चंचलता के लक्षण क्या हैं? दादाश्री : जिन्हें अपना ज्ञान नहीं मिला हो, वह तो मानो कि पूरा जगत् चंचलता में ही हैं। अपना ज्ञान लेने के बाद फिर चंचलता नहीं रहती है उसमें, सहजता रहती है। खुद का बिल्कुल भी धक्का नहीं लगता, बाहर की क्रिया अपने आप होती रहती है।