________________ 460 आप्तवाणी-१३ (पूर्वार्ध) निर्विकल्प तो हो गए हैं लेकिन सहज नहीं हो पाए हैं। निर्विकल्प तो जब से ज्ञान दिया तभी से हो गए हैं। जितनी सहज अवस्था उत्पन्न होती है न, वैसे-वैसे वाणी-वर्तन सबकुछ बदलता जाता है। वीतरागता आती जाती है न! वाणी कब सहज होती है? जब ऐसा लगे कि 'टेपरिकॉर्डर बोल रहा है,' तब वाणी सहज हो जाएगी। जब वाणी मालिकी रहित हो जाएगी, तब सहज हो जाएगा। तब तक ठीक तरह से पाँच आज्ञा का पालन कर और उसी में आगे बढ़। प्रश्नकर्ता : वाणी की सहजता चौदह साल के बाद आती है? दादाश्री : तभी होगा न! वाणी की सहजता, मन की सहजता, शरीर की सहजता, तभी आएगी न! वह उसका फल है। देहाध्यास छूटते-छूटते -छूटते सहजता आती है। सहजता आए तब पूर्णाहुति कहलाती है क्योंकि आत्मा तो सहज है ही और देह की सहजता आ गई। कृपालुदेव ने कहा है कि 'देहाध्यास छूटे तो भी बहुत हो गया।' तू कर्म का कर्ता नहीं है। 'छूटे देहाध्यास तो नहीं कर्ता तू कर्म, नहीं भोक्ता तू तेहनो; एज धर्म नो मर्म।' (देहाध्यास छूटे तो तू कर्म का कर्ता नहीं है और तू उसका भोक्ता भी नहीं है, यही धर्म का मर्म है) सहजात्म स्वरूप अंतिम पद है, सहज स्वरूप। सहजानंद, बिना प्रयत्न के आनंद, सहज आनंद, अप्रयत्न दशा ! प्रकटे आत्म ऐश्वर्य सहजपने में से सहज का मतलब क्या है? जहाँ पानी ले जाए वहीं चला जाए, उसके जैसा। फिर पानी ऐसे चला जाए तो वैसे चला जाता है। पोतापना नहीं। पानी जहाँ पर ले जाए खुद वहीं पर जाए, उस तरह से। सहज का मतलब क्या है? एक मिनट के लिए भी सहज हो गया तो वह भगवान पद में आ गया। जगत् में कोई भी सहज हो सके ऐसा नहीं है! एक मिनट के लिए भी कोई नहीं हो सकता। सहज तो, इस