________________ [5] आत्मा और प्रकृति की सहजता से पूर्णत्व 459 ध्येय कैसा रखना है कि दादाजी की सेवा करनी है और भाव सहज रखना है। दादाजी की सेवा मिलनी तो बहुत बड़ी चीज़ है न! वह तो बहुत बड़ा पुण्य हो तब मिलती है, नहीं तो नहीं मिलती न! यों हाथ भी नहीं लगा सकते न! एक बार यों हाथ लगाने को मिले तो वह भी बहुत बड़ा पुण्य कहलाएगा। ऐसा हो जाए तो मन में मानना कि बहुत दिनों में यह प्राप्त हुआ है, इतना भी क्या कम है? बाकी, किसी भी तरीके से शुद्ध उपयोग में रहना चाहिए। प्रश्नकर्ता : सहज तो तभी हो सकते हैं न कि जब संपूर्ण विज्ञान अंदर खुल जाए? तभी सहज हो सकते हैं? दादाश्री : जब 'व्यवस्थित' संपूर्ण रूप से समझ में आ जाए तब संपूर्ण सहज हो सकते हैं। अब यह तो अपने आप होता ही रहता है। उसके लिए बहुत ऐसा नहीं रखना है कि इन मेहमानों के लिए इंतज़ार करके बैठे नहीं रहना है। इंतज़ार करने से तो अंत ही नहीं आएगा लेकिन व्यवस्थित समझ में आ जाए कि तुरंत सहज हो जाएगा। प्रश्नकर्ता : सहज होने के लिए व्यवस्थित पूरी तरह से समझ में आ जाना चाहिए न? दादाश्री : व्यवस्थित पूरी तरह से समझ में आ जाए तो पूरी तरह से सहज हो जाएगा, बाकी जितना व्यवस्थित समझ में आए, उतना ही सहज होता जाएगा। उससे फिर घबराहट होगी ही नहीं। व्यवस्थित समझ में आ जाए तो इस दुनिया में कोई परेशानी है ही नहीं। व्यवस्थित जितना समझ में आता जाएगा, उतना ही केवलज्ञान खुलता जाएगा, और उतना ही सहज होता जाएगा। प्रश्नकर्ता : व्यवस्थित को नहीं समझ पाता तभी उपयोग से बाहर जाता है न? दादाश्री : हाँ। तभी जाता है। नहीं तो उपयोग से बाहर जाए ही नहीं न और तभी तो असहज हो जाता है। व्यवस्थित जितना समझ में आता जाएगा उतना सहज होता जाएगा। जैसे-जैसे व्यवस्थित समझ में आता जाएगा, उसके आवरण खुलते जाएँगे, वैसे-वैसे सहज होता जाएगा।