________________ [5] आत्मा और प्रकृति की सहजता से पूर्णत्व 457 दादाश्री : बड़ी बात नहीं है? अंत में सहज होना ही पड़ेगा न! अंत में सहज हुए बगैर चलेगा ही नहीं। दादा की अनोखी साहजिकता प्रश्नकर्ता : 'ज्ञानी के पास पड़े रहो,' ऐसा जो कहा है, पड़े रहकर यही सब देखना है? दादाश्री : हाँ। पूरे दिन इनकी सहजता देखने को मिलेगी। कैसी सहजता! कैसी निर्मल सहजता है, कितने निर्मल भाव हैं! और अहंकार रहित दशा कैसी होती है, बुद्धि रहित दशा कैसी होती है, वह सब देखने को मिलता है। ये दो दशाएँ तो और कहीं देखने को ही नहीं मिलती न ! अहंकार रहित दशा और बुद्धि रहित दशा देखने को नहीं मिलती। हर कहीं पर बुद्धिशाली हैं! वे यों बात करते हैं न, तब भी नाक यों चढ़ा रहता है! कुछ भी सहज नहीं रहता। फोटो लेते समय भी नाक चढ़ जाती है और फोटोवाले हमें देखें तब उसे अगर फोटो नहीं खींचनी हो न, तो भी खींच लेता है कि ये फोटो खींचने लायक हैं! वे सहजता ढूँढते हैं। नाक की अकड़ देखे तो फोटो सहज नहीं आता। अर्थात् किसी के साथ जाते हैं न, किसी के समूह में, वहाँ पर अपना मुँह चढ़ा हुआ नहीं देखे तो वे लोग समझ जाते हैं कि 'देयर इज़ समथिंग।' लोगों को देखना बहुत अच्छी तरह से आता है। खुद का रखना नहीं आता। खुद के चेहरे को वीतराग रखना नहीं आता लेकिन सामनेवाले का चेहरा वीतराग है, वैसा उन्हें अच्छी तरह से देखना आता है, बहुत बारीकी से। मुँह चढ़ाया हो तो अच्छा नहीं दिखता, नहीं? फोटो में देखें तो भी पता चल जाता है कि इनका मुँह चढ़ा हुआ है। इसलिए फोटोग्राफर फोटो लेते हैं न, तब सामनेवाला असहज हो तो उसे फोटो लेने में मज़ा नहीं आता। वह सहजता ढूँढता है। और हमारे लिए खुश ही हैं। जैसे भी घूमें वैसे वे खुश, क्योंकि सहज हैं। वे बहुत खुश हो जाते हैं। उन्हें सहजता चाहिए और वह आसानी से मिल जाती है। अन्य कहीं पर तो उन्हें कहना पड़ता है, कि 'ज़रा सीधे बैठिए।' वर्ना फिर भी फोटो खिंचवाते समय लोगों में असहजता रहती